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'नागसेन' नाम का कोई व्यक्तित्व विद्यमान नहीं है । परमार्थ रूप से व्यक्ति की उपलब्धि नही होती "परमत्थतो पनेत्थ पुग्गलो नूपलब्भति ।"
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भदन्त नागसेन की यह अनात्मवाद की व्याख्या बड़ी महत्त्वपूर्ण है । इसके उद्धरण के विना मूल बुद्ध दर्शन सम्वन्धी अनात्मवाद का कोई भी विवेचन पूरा नहीं माना जा सकता । कहाँ तक भदन्त नागसेन ने बुद्ध-मन्तव्य निषेधात्मक दिशा में बढ़ाया है, अथवा कहाँ तक उन्होंने उसके यथार्थ रूप का ही दिग्दर्शन किया है, इसके विषय में विभिन्न मत हो सकते है । पहले मत का प्रतिपादन योग्यतापूर्वक डा० राधाकृष्णन् ने किया है, ' जबकि इसी कारण महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भारतीय दर्शन - शास्त्र का इतिहास लिखने की उनकी योग्यता को ही संदेह की दृष्टि से देखा है । इस विवाद में भाग न लेकर हम इतना ही कह देना अपने प्रस्तुत उद्देश्य के लिये पर्याप्त समझते हैं कि चाहे नागसेन की अनात्मवाद की व्याख्या बुद्ध - मन्तव्य का यथावत् निदर्शन करती हो या चाहे उन्होंने उसे निषेधात्मक दिशा में बढ़ाया हो, वह अपने आप में महत्त्वपूर्ण अवश्य है । न केवल स्थविरवादी बौद्ध साहित्य में ही, अपितु सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य में, बुद्ध वचनों को छोड़कर. अनात्मवाद का उससे अधिक सुन्दर, उससे अधिक आकर्षक और उससे अधिक गम्भीर विवेचन कहीं नहीं मिल सकता । अतः बौद्ध दर्शन और बौद्ध साहित्य के विद्यार्थी के लिये हर हालत में उसका जानना आवश्यक है ।
अनात्मवाद की उपर्युक्त व्याख्या मान लेने पर पुनर्जन्मवाद के साथ उसकी संगति किस प्रकार लगाई जा सकती है, यह भी समस्या मिलिन्द के सिर में चक्कर लगाती है । वह भदन्त नागसेन से पूछता है
“भन्ते नागसेन कौन उत्पन्न होता है ? क्या उत्पन्न होने पर व्यक्ति वही रहता है या अन्य हो जाता है ? यो उप्पज्जति सो एव सो उदाहु अञ्ञो 'ति ।" " न तो वही और न अन्य ही -- न च सो न च अञ्ञोति" स्थविर कहते हैं ।
१. इंडियन फिलासफी, जिल्द पहली, पृष्ठ ३८२ - ९०; कीथ, श्रीमती रायस डेविड्स और विंटरनित्ज की भी कुछ कुछ इसी प्रकार की मान्यता है, देखिये विटरनित्ज़ : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १७८, पद-संकेत I २. दर्शन दिग्दर्शन, पृष्ठ ५३१-५३२ ।