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८०. कुशल चित्त से संयुक्त कायिक-कर्म भी क्या कुशल है ? महीशासक और
सम्मितियों का मत । ८१. क्या 'रूप-जीवितेन्द्रिय' (रूप-जीवितिन्द्रिय) जैसी कोई वस्तु नहीं ?
'नहीं' कहते थे पूर्व शैलीय और सम्मितिय भिक्षु ! ८२. क्या पूर्व के बुरे कर्म के कारण अर्हत् का भी पतन हो सकता है ? पूर्वशैलीय
और सम्मितिय भिक्ष कहते थे कि यह सम्भव है ।
नवाँ अध्याय ८३. क्या दस संयोजनों से विमुक्ति बिना धर्मों के अनित्य, दुःख और अनात्म
स्वरूप को चिन्तन किये भी प्राप्त हो सकती है ? अन्धकों की मिथ्या
धारणा। ८४. क्या निर्वाण का चिन्तन भी एक मानसिक बन्धन है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं
का ऐसा ही मत। ८५. क्या रूप आलम्बन-युक्त है ? उत्तरापथकों का 'आलम्बन' का ठीक अर्थ
न जानने के कारण यह भ्रम । ८६. क्या सात अनुशयों (चित्त-मलों) के मानसिक आधार नहीं होते ? अन्धकों
और कुछ उत्तरापथकों का यही मत । ८७. क्या अन्तर्ज्ञान का भी मानसिक आधार नहीं होता ? अन्धकों का यही मत । ८८. क्या भूत या भविष्यत्की चेतना का भी कोई मानसिक आधार नहीं होता ?
उत्तरापथक भिक्षुओं का ऐसा मत । ८९. क्या प्रत्येक चित्त की अवस्था में वितर्क रहता है ? उत्तरापथक भिक्षुओं
की यही मान्यता। ९०. क्या शब्द भी केवल वितर्क का ही बाहरी विस्तार (विप्फार) है । पूर्व
शैलीय भिक्षुओं की यही मान्यता। ९१. क्या वाणी सदा चित्त से सम्बन्धित नहीं है ? 'नहीं है' कहते थे पूर्वशलीय,
क्यों कि भूल में हमारे मुंह से कभी-कभी ऐसी बातें निकल जाती हैं जिन्हें हम कहना नहीं चाहते।