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( ४७२ ) पेटकोपदेस
'पेटकोपदेस' भी 'नेतिपकरण' के समान विषय-वस्तु वाली एक दूसरी रचना है। मेबिल बोड ने हमें बताया है कि बरमा में इन दोनों ग्रन्थों का आदर त्रिपिटक के समान ही होता है। पेटकोपदेस' का उद्देश्य त्रिपिटक के विद्यार्थियों को उसी प्रकार का उपदेश या शिक्षा देना है जैसा हम नेत्तिपकरण' में देख आये हैं। नेत्तिपकरण' की हीविषय-वस्तु को यहाँ एक दूसरे ढंग से उपन्यस्त कर विवेचित किया गया है। कहीं जो कुछ बातें 'नेत्तिपकरण में दुरूह रह गई हैं, उनको यहाँ स्पष्ट रूप से समझा दिया गया है । पेटकोपदेस' की एक मुख्य विशेषता यह भी है कि यहाँ विषय का विन्यास प्रधानतः चार आर्य सत्यों की दष्टि से किया गया है, जो वुद्ध-गासन के मूल उपादान हैं। 'पेटकोपदेस' के भी रचयिता 'नेत्तिपकरण' के लेखक महाकच्चान ही माने जाते है । अतः उनके काल और वृत्त के सम्बन्ध में भी वहीं जानना चाहिए, जो 'नेत्तिपकरण' के रचयिता के सम्बन्ध में। मिलिन्दपञ्हर
'मिलिन्द पहं' 'मिलिन्द पञ्हो' या 'मिलिन्दपञ्हा' (क्योंकि इन तीनों प्रकार यह ग्रन्थ लिखा जाता है ) ३ इस युग की सब से अधिक प्रसिद्ध रचना है। सम्पूर्ण अनुपिटक साहित्य में इस ग्रन्थ की समता अन्यकोई ग्रन्थ नही कर सकता। बद्धघोप ने इस ग्रन्थ को अपनी अटकथाओं में त्रिपिटक के समान ही आदरणीय
१. दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ४ २. रोमन लिपि में सन् १८८० में ट्रेकनर का प्रसिद्ध संस्करण निकला था। आज तो नागरी लिपि में भी सौभाग्यवश इसके मूल पाठ और अनुवाद दोनों उपलब्ध हैं । मिलिन्द-पञ्होः आर.डी.वदेकर द्वारा सम्पादित, बम्बई विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित, १९४०; भिक्षु जगदीश काश्यप द्वारा हिन्दी में अनुवादित, प्रकाशक भिक्षु उ० कित्तिमा, सारनाथ, बनारस, १९३७ । इस ग्रंथ के स्यामी, सिंहली तथा बरमी अनेक संस्करण उपलब्ध है। ३. सिंहल में तो विशेषतः मिलिन्दपञ्हो ही कहा जाता है । हिन्दी में 'मिलिन्दप्रश्न' के आधार पर 'मिलिन्दपञ्ह' ही कहना हमने अधिक उचित समझा है।