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उसमें रहस्यात्मक ज्ञान ( 'आचरिय-मुट्ठि) भी इतना अधिक रक्खा हुआ बताया जाता था कि उसके. उद्घाटन के लिये शब्द - व्युत्पत्ति - परक एक ग्रन्थ की आवश्यकता थी भी । इसके विपरीत बुद्ध वचनों की लोकोत्तर सरलता ने किसी भी व्युत्पत्ति-शास्त्र या निरुक्ति - शास्त्र की अपेक्षा प्रारम्भ से ही नहीं रक्खी। यह उनकी एक बड़ी विशेषता है । चौथी पाँचवीं शताब्दी ईसवी से जो अट्ठकथाएँ भी लिखी गई, उन्होंने भी विशेषतः बुद्ध वचनों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ही पूरा किया है, उत्तरकालीन संस्कृत भाष्यकारों या टीकाकारों की तरह शब्द-क्रीड़ाऍ नहीं कीं । फलतः बुद्ध वचनों पर निरुक्ति परक साहित्य पालि में अधिक नहीं पनप पाया । केवल 'नेत्तिपकरण' और 'पेटकोपदेस' यही दो ग्रन्थ इस सम्बन्ध में मिलते हैं और उन्होंने भी बुद्ध वचनों की मौलिक सरलता को अधिक सरल बना दिया हो, या सद्धम्म को समझने वाले के लिये अधिक मार्ग प्रशस्त कर दिया हो, ऐसा नही कहा जा सकता । जैसा अभी कहा गया, उनका उद्देश्य केवल त्रिपिटक के पाठ और उसके तात्पर्य - निर्णय-सम्बन्धी नियमों या युक्तियों का शास्त्रीय विवेचन मात्र करना है ।
'नेत्तिपकरण' की विषय-वस्तु और शैली बहुत कुछ अभिधम्मपिटक से मिलती है । सुगमता के लिये उसे इस प्रकार तालिका-बद्ध किया जा सकता है