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( ४६८ ) पर्याप्त होगा । नेत्तिपकरण में विवेचित १६ हार ये हैं, (१) देसनाहार-इस हार में बनाया गया है कि बुद्ध-देसना (धर्मोपदेश) की विधि छह प्रकार की होती थी (अ) गील आदि का सुपरिणाम दिखाने वाली (अस्साद) (आ) विषयभोगों का दुष्परिणाम दिखाने वाली (आदिनवं), (इ) संसार से निकलने का मार्ग दिखाने वाली (निस्सरणं), (ई) श्रामण्य के फल का वर्णन करने वाली (फलं), (उ) निर्वाण -प्राप्ति का उपाय बताने वाली (उपायं) और (ऊ) नैतिक उद्देश्य दिखाने वाली (आनत्तिं) । यहीं श्रुतमयी (सुतमयी-अनुश्रव पर आश्रित), चिन्तामयी-बौद्धिक चिन्तन पर आश्रित) और भावनामयी (पवित्र जीवन के विकास पर आश्रित), इन तीन प्रज्ञाओं (ज्ञानों) का भी निर्देश किया गया है। (२) विचय-हार या धर्म-चिन्तन और पर्यवेक्षण (३) युत्तिहार (युक्तिहार) अथवा युक्तियों के द्वारा धर्म-विश्लेषण कर उसके अर्थ को समझना, (४) पदट्ठानहार, मौलिक लक्षणों से पदोंकी व्याख्याकरना, (५) लक्खणहार, लक्षणों से अर्थ को समझना, यथा कहीं रूप शब्द के आ जाने से ही, वेदना आदि को भी समझना । (६) चतुव्यूह-हार (चतुव्ह!-हार) अर्थात् पाठ, शब्द, उद्देश्य और क्रम से अर्थ को समझना, (७) आवत्तहार, 'किस प्रकार बुद्ध-उपदेशों में सभी विषय किसी न किसी प्रकार अविद्या, चार आर्य सत्य, आर्य अष्टागिक मार्ग आदि जैसे मूल-भूत सिद्धान्तों में संनिविष्ट हो जाते हैं । वेदान्त-शास्त्र के तात्पर्य-निर्णय में जिसे 'अभ्यास' कहा गया है, उसकी इससे विशेष समानता है। (८) विभत्तिहार) अर्थात् विभाजन या वर्गीकरण का ढंग (९) परिवत्तन-हार) अथवा बुद्ध का अशुभ को शुभ के रूप में परिवर्तित करने का ढंग । (१०) वेवचन-हार अथवा शब्दों के अन्य अनेक समानार्थवाची शब्द देकर अर्थ को स्पष्ट करने का ढंग। (११) पत्तिहार (प्रज्ञप्तिहार)--एक ही धम्म को अनेक प्रकार से रखने का ढंग। (१२) ओतरण-हार अथवा इन्द्रिय, पटिच्चसम्प्पाद, पञ्च स्कन्ध आदि के रूप में सम्पूर्ण बुद्ध-मन्तव्य का विश्लेषण। (१३) सोधन-हार, प्रश्नों को शुद्ध करने का ढंग, जिसे बुद्ध प्रयुक्त करते थे। (१४) अधिट्ठान-हार अथवा सत्य के आधार का निर्णय करना । (१५) परिकखाहार अथवा हेतुओं और प्रत्ययों सम्बन्धी ज्ञान । यह 'हार' बिलकुल अभिधम्मपिटक, विशेषतः पट्ठान, का ही एक अंग जान पड़ता है। (१६) समारोपन