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हैं, इसके लिये अभिधम्मपिटक के समान ही उत्तरकालीन वेदान्तियों एवं बौद्ध और वैदिक परम्परा के आचार्यों के प्रज्ञान अच्छे उदाहरण है | चाहे नागार्जुन असंग, वसुबन्धु, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति हों, चाहे वात्स्यायन, कुमारिल, वाचस्पति, उदयन और श्रीहर्ष हों, सब एक समान ही हैं । वृद्ध और उपनिषदों के ऋषियों की सरलता, स्वाभाविकता और मार्मिकता एक में भी नहीं है । अभिधम्म-पिटक अति प्राचीन होते हुए भी बुद्ध - मन्तव्य को इसी ओर ले गया है । सन्तोष की बात यह है कि वहाँ बुद्ध के मौलिक सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन या परिवर्द्धन नहीं किया गया है, संशोधन की तो कोई बात ही नहीं । अतः मूल बुद्धदर्शन को जानने के लिये उसका उपयोग बच रहता है । बुद्ध-मन्तव्य स्वयं एक विस्मयकारी वस्तु है । यदि उसके कुछ विस्मयोंको खोलना है तो अभिधम्मपिटक का अध्ययन नितान्त आवश्यक हैं। यदि यह देखना है कि निरन्तर परिवर्तनशील, अनित्य, दुःख और अनात्म धर्मो ( पदार्थों) के प्रवर्तमान रहने पर भी संसार के सर्वश्रेष्ठ साधक और ज्ञानी पुरुष ने चित्त की निश्चल समाधि किम प्रकार मिखाई है, नियामक को न मान कर भी नियम को किस प्रकार प्रतिष्ठित किया है. ईव्वरप्रणिधान न होने पर भी समाधि का विधान किस प्रकार किया है, प्रार्थना न होने पर भी ध्यान को किस पर टिकाया है, 'अत्ता' ( आत्मा ) न होने पर भी पुनर्जन्मवाद को किस पर अवलम्बित किया है, परम सत्ता के विषय में मौन रखकर भी गम्भीर आश्वासन किस प्रकार दिया है, यदि यह सब और इसके साथ प्रारम्भिक बौद्ध धर्म के महान् मनोवैज्ञानिक अध्ययन सम्वन्धी दान को उसकी पूरी विभूति के साथ देखना है, तो अभिधम्म की वीथियों में भ्रमण करना ही होगा । किन्तु बीसवीं सदी के मनुष्य के लिये, जो कामावचर- लोक ( कामनाओं के लोक) की अभाव पूर्तियों के प्रयत्न में ही अभी संलग्न और सन्तुष्ट हैं, इतना अवकाश मिल सकेगा, यह कहना सन्देह से खाली नहीं है !