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१५४. क्या एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के मन में सुख उत्पन्न कर सकता है ?
हेतुवादियों का ऐसा विश्वास था। १५५. क्या एक ही समय अनेक वस्तुओं की ओर हम ध्यान दे सकते है ? पूर्वशैलीय
और अपरशैलीय भिक्षुओं के मतानुसार यह सम्भव था। १५६-५७. क्या रूप भी एक हेतु है ? क्या यह हेतुओं से युक्त है ? ये दोनों मत
उत्तरापथकों के थे। १५८. क्या रूप कुशल या अकुशल हो सकता है ? महीशासक और सम्मितिय
भिक्षुओं का यह विश्वास था। १५९. क्या रूप कर्म-विपाक है ? अन्धक और मम्मितियों की मान्यता। १६०. क्या रूपावचर और अरूपावचर लोकों में भी रूप है ? अन्धकों का
ऐसा ही विश्वास था। १६१. क्या रूप-राग और अरूप-राग, क्रमश: रूप-धातु और अरूप-धातु में
सम्मिलित हैं ? अन्धकों की यही मान्यता थी।
सत्रहवाँ अध्याय १६२. क्या अर्हत् भी पुण्यों का संचय करता है ? अन्धकों की मान्यता । १६३. क्या अर्हत् की अकाल मृत्यु नहीं हो सकती ? नहीं हो सकती, ऐसा राज
गृहिक और सिद्धार्थक भिक्षु मानते थे। १६४. क्या हर वस्तु कर्मों के कारण है ? गजगृहिक और सिद्धार्थक भिक्षु ऐसा
ही विश्वास रखते थे। १६५. क्या दुःख छ: इन्द्रिय-अनुभूतियों तक ही मीमित है ? हेतुवादियों की यह
मान्यता थी। १६६. क्या आर्य-मार्ग को छोड़कर सभी वस्तुएं और संस्कार, दुःख (कृत)
है ? हेतुवादियों का ऐसा ही विश्वास था। १६७. क्या यह कहना गलत है कि संघ दान ग्रहण करता है। यह मत वैतुल्यक
नामक महानून्यतावादियों का था। संघ की चार आर्य-मार्गों और उनके फलों के रूप में व्याख्या करना इनका मुन्य सिद्धान्त था। इनके सिद्धान्तों में हम महायान-धर्म के बीज पाते है।