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( ४४० ) १२८. क्या ध्यान के अन्दर ध्यान का आस्वाद होता है और ध्यान की इच्छा ही
उमका आलम्बन (विषय) है ? अन्धकों का ऐसा ही विश्वास । १२९. क्या अ-सुखकर वस्तु के लिये भी आसक्ति हो सकती है ? उत्तरापथकों
का ऐसा ही विश्वास। १३०. क्या मन के विषयों की तृष्णा (धम्म-तण्हा) अव्याकृत है, और १३१. क्या वह दुःख का कारण नहीं है ? ये दोनों मत पूर्वशैलीय भिक्षुओं के थे।
चौदहवाँ अध्याय १३२. क्या कुशल-मूल (अ-लोभ, अ-द्वेष, अ-मोह) अ-कुशल मूलों (लोभ, द्वेष,
मोह) के बाद पैदा होते हैं ? महासांघिकों का मिथ्या विश्वास था। १३३. माता के पेट में गर्भ-में आते समय क्या ६ इन्द्रयाँ (चक्षु, श्रोत्र, घ्राण,
जिह्वा, काय, मन) साथ-साथ ही उत्पन्न होती है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं
का ऐसा ही विश्वास था। १३४. क्या एक विज्ञान (चक्षु-विज्ञान आदि) किसी दूसरे विज्ञान के बाद
उत्पन्न हो सकता है ? उत्तरापथक भिक्षुओं का ऐसा ही विश्वास था। १३५. क्या वाणी और शरीर का पवित्र भौतिक कार्य चार महाभूतों से ही
से ही उत्पन्न होता है ? उत्तरापथकों का यही विश्वास था। १३६. क्या काम-वासना-सम्बन्धी अनुशय और उसका प्रकाशन दो विभिन्न
वस्तुएं हैं ? अन्धकों का यही विश्वास था। १३७. क्या अनुशयों का प्रकाशन चित्त मे असंयुक्त (विप्पयुत्त) है ? अन्धकों
का यही मत था । १३८. क्या रूप-राग, रूप-धातु में ही अन्तहित और सम्मिलित है ? अन्धक और
सम्मितिय भिक्षुओं का यही विश्वास था। १३९. क्या मिथ्या मत-वाद अ-व्याकृत है ? अन्धक और सम्मितिय भिक्षुओं
का यही मत था । वे 'अव्याकृत' शब्द के ठीक अर्थ को नहीं समझते थे। १४०. क्या मिथ्या मत-वाद, लौकिक क्षेत्र मे असम्बन्धित, साधकों के लोकोत्तर
क्षेत्र में भी पाये जाते हैं ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का यह मिथ्या विश्वास था।