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( ४४४ ) १७७. क्या केवल एक आर्य-मार्ग के अभ्यास से चारों आर्य-मार्गो (स्रोतापत्ति
आदि) के फलों को प्राप्त किया जा सकता है ? १७८. क्या एक ध्यान के ठीक बाद दूसरे ध्यान में साधक प्रवेश कर जाता है ?
महीशासकों का ऐसा ही विश्वास था। १७९. ध्यानों के पंचविध विभाजन में जिसे द्वितीय ध्यान कहा जाता है वह क्या
केवल प्रथम और द्वितीय ध्यान के बीच की अवस्था है ? सम्मितिय और
कुछ अन्धकों का ऐसा ही विश्वास था । १८०. क्या साधक ध्यान में शब्दों को सुन सकता है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं की
यही मान्यता थी? १८१. क्या दृश्य पदार्थ आँखों मे ही देखे जाते हैं ? महासांघिकों के मतानुसार
(पसाद-चक्खु) जो केवल भौतिक विकार है, देखती है । स्थविरवादियों के मनानुसार वह केवल देखने का आधार या आयतन है और है जो देखता है
वह नो वास्तव में चक्षु-विज्ञान है । १८२. क्या हम भूत, वर्तमान और भविष्यत् के मानसिक क्लेशों पर विजय प्राप्त
कर सकते हैं ? उत्तरापथकों के अनुसार कर सकते हैं। १८३. क्या शून्यता संस्कार-स्कन्ध में मम्मिलित है ? अन्धकों के अनुमार सम्मि
दित है। १८४. क्या मार्ग-फल अ-संस्कृत है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का मत । १८५. क्या किमी वस्तु की प्राप्ति स्वयं अ-संस्कृत है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं
का मत। १८६. क्या 'तथता' (वस्तुओं का निश्चित स्वरूप) अ-संस्कृत है ? उत्तरापथकों
में में कुछ का यह विश्वास था। बाद में चल कर अश्वघोष के 'भूततथता' के सिद्धान्त का यहाँ बीज पाया जाता है। यह सिद्धान्त उपनिषदों के ध्रुव
आत्मवाद के अधिक समीप पहुंच जाता है । १८७. क्या निर्वाण-धातु कुशल है ? अन्धकों का मत। कुशल को सामान्यतः
निर्दोष' या 'पवित्र' मानकर वे निर्वाण को भी 'कुशल' कहते थे। १८८. क्या मांसारिक मनुष्य (पृथग्जन) में भी अत्यन्त नियमवना (अच्चन्त
नियामता) हो सकती है ? उत्तरापथकों में से कुछ के मतानुसार हो
सकती थी। १८९. क्या ऐमी श्रद्धेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ नही हैं जो लौकिक हों और जिन्हें