________________
( ४३७ )
९२. क्या कायिक-कर्म सदा चित्त से सम्बन्धित नहीं है ? पूर्वशैलीय भिक्षुओं का उपर्युक्त के समान मत ।
९३. क्या भूत और भविष्यत् की भी प्राप्तियाँ सम्भव है ? अन्धक कहते थे 'हाँ' ।
दसवाँ अध्याय
९४. क्या पुनर्जन्म को प्राप्त कराने वाले स्कन्धों के निरोध से पूर्व ही पंचस्कन्धों की उत्पत्ति हो जाती है ? अन्धकों का ऐसा ही मत ।
९५. क्या आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग का अभ्यास करते समय व्यक्ति का रूप उसमें संनिविष्ट रहता है ? सम्मितिय, महीशासक और महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास ।
९६. क्या पाँच इन्द्रिय-चेतनाओं (जैसे देखना, सुनना आदि ) का उपयोग करते हुए मार्ग की भावना की जा सकती है ? महीशासकों का यही विश्वास ।
९७. क्या पाँच प्रकार की इन्द्रिय- चेतनाएँ कुशल हैं ? महीशासकों की मान्यता । ९८. क्या पाँच प्रकार की इन्द्रिय-चेतनाएँ अ-कुशल भी है ? उपर्युक्त के समान ही । ९९. का आर्य-अष्टाङ्गिक मार्ग का अभ्यास करने वाला व्यक्ति दो प्रकार के शील ( लौकिक और अलौकिक ) का आचरण कर रहा है ? महासांघिकों का यही मत ।
१००. क्या शील कभी-कभी अ-चेतसिक भी होता है ? महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास |
१०१. क्या शील चित्त से सम्बन्धित नहीं है ? ९१, ९२ के समान
१०२. क्या मात्र ग्रहण करने से शील का विकास होता है ? महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास |
१०३. क्या केवल शरीर या वाणी से विज्ञप्ति कर देना भी शील है ? महीशासक और सम्मितियों का ऐसा ही मत ।
१०४. क्या नैतिक उद्देश्य की अविज्ञप्ति अकुशल है ? महासांघिकों का यही मत ।
ग्यारहवाँ अध्याय
१०५. क्या सात अनुशय अव्याकृत है ? महासांघिकों की यह मान्यता थी । १०६. क्या ज्ञान से असंयुक्त चित्त की अवस्था में भी किसी को अविद्या से विमुक्त