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११--मग्ग-विभंग
(आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग का विवरण) आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग का विवरण यहाँ सतिपट्ठान-सुत्त (मज्झिम.१।१।१०) के अनुसार ही है । सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि का निर्देश करने के बाद प्रत्येक की व्याख्या की गई है और फिर अन्त में प्रश्नोत्तर के रूप में उन्हें कुशलादि के वर्गीकरणों में बाँटा गया है।
१२--झान-विभंग
(चार ध्यानों का विवरण) ___ -प्रथम सुत्तन्त-भाजनिय में चूलहत्थिपदोपम-सुत्त (मज्झिम. १।३।७) के उस बुद्ध-वचन को उद्धृत किया गया है जिसमें चार ध्यानों का विस्तृत वर्णन * उपलब्ध होता है। अधिक महत्वपूर्ण होने के कारण हम उसे यहाँ उद्धत करेंगे। 'भिक्षुओ ! भिक्षु इस आर्य-सदाचार से युक्त हो, इस आर्य इन्द्रिय-संयम से युक्त हो, स्मृति और ज्ञान से युक्त हो, किसी एकान्त-स्थान में रहता है जैसे अरण्य, वृक्ष की छाया, पर्वत, कन्दरा, गुफा, श्मशान, जंगल, खुले आकाश के नीचे या पुआल के ढेर पर । वह पिडपात से लौट भोजन कर चुकने के बाद ग्रासनी मार शरीर को सीधा रख स्मृति को सामने कर वैठता है . . . . . . वह चित्त के उपक्लेश, प्रना को दुर्वल करने वाले, पाँच बन्धनों को छोड़, काम-वितर्क से रहित हो, बुरे विचारों से रहित होकर, प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विचरता है। इस ध्यान में वितर्क और विचार रहते हैं। एकान्त-वास से यह ध्यान उत्पन्न होता है। इसमें प्रीति और सुख भी रहते हैं . . . . . .फिर भिक्षुओ ! भिक्षु वितर्क और विचारों के उपगमन से अन्दर की प्रसन्नता और एकाग्रता रूपी द्वितीय -ध्यान को प्राप्त करता है । इसमें न वितर्क होते हैं, न विचार । यह समाधि से उत्पन्न होता है। इसमें प्रीति और सुख रहते है। . . . . . . फिर भिक्षुओ ! भिक्ष प्रीति मे भी विरक्त हो, उपेक्षावान् बन कर विचरता है। वह स्मृतिमान् , ज्ञानवान् होता है और शरीर मे सुख का अनुभव करता है । वह तृतीय ध्यान को प्राप्त करता है जिसे पंडित जन 'उपेक्षावान्, स्मृतिमान् सुखपूर्वक विहार करने वाला' कहते है ।