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( ४१० ) फिर भिक्षुओ ! भिक्षु दु:ख और सुख-दोनों के प्रहाण से, सौमनस्य और दौर्मनस्य दोनों के पहले से ही अस्त हुए रहने से, चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त करता है । इसमें न दुःख होता है न सुख । केवल उपेक्षा तथा स्मृति की परिशुद्धि यहाँ होती हैं।" इसी बुद्ध-वचन के आधार पर अभिधम्म-भाजनिय में यह दिखलाया गया है कि प्रथम ध्यान के पाँच अवयव होते है, यथा, वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और समाधि । द्वितीय ध्यान के नीन, यथा प्रोति, मुख और समाधि । तृतीय ध्यान में केवल दो रह जाते हैं, सुख और समाधि और चौथे में भी केवल दो, उपेक्षा और समाधि । 'पञ्ह-पुच्छकं' में यही दिखलाया गया है कि ध्यान कुशल भी हो सकते है और अव्याकृत भी। चार स्मतिप्रस्थानों की तरह ये भी अर्हत् के चित्त के लिये भविष्य का कर्म-विपाक बनाने वाले नहीं होते। दूसरे शब्दों में वे उसके लिये 'किरिया-वित्त' होते हैं।
१३-अप्पमञ-विभंग
(चार अ-परिमाण अवस्थाओं का विवेचन) मैत्री (मेना), करुणा, मुदिता और उपेक्षा, इनको अपरिमाण वाली अवम्याएं कहा गया है । इसका कारण यह है कि इन्हें कहाँ तक बढ़ाया जा सकता है, इसकी कोई हद नहीं। इन्हीं को 'ब्रह्म-विहार' भी कहते है । पतंजलि की भाषा में इन्हे 'सार्वभौम महाव्रत' भी कहा जा सकता है । पातंजल योग-दर्शन (११३३) में इन चार अवस्थाओं के विकास का उपदेश दिया गया है । इम विभंग में इन चार अवस्थाओं का विवरण और चार ध्यानों के माथ उनका सम्बन्ध दिखलाया गया है।
१४-सिक्खापद-विभंग
(पाँच शिक्षापदों का विवरण) हिमा, चोरी, व्यभिचार, असत्य और मद्यपान, इनसे विरत रहना ही मदाचार के पाँच मार्वजनीन नियम है, जिनका यहाँ विवरण और विवेचन प्रस्तुत किया गया है।