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लिये कर्म-विपाक नहीं बनते । अतः उस हालत में वे बौद्ध पारिभाषिक शब्दों में 'किरिया' (क्रिया-मात्र) होते हैं ।
८-सम्मप्पधान-विभंग
(चार सम्यक् प्रधानों का विवरण) (१) अकुशल अवस्थाओं से बचना (२) उन पर विजय प्राप्त करना (३) कुगल अवस्थाओं का विकास करना (४) विकसित कुशल अवस्थाओं को बनाये रखना, यही चार सम्यक् प्रधान हैं। सतिपट्ठान-सुत्त (मज्झिमश०१०) के आधार पर इनका वर्णन किया गया है और अभिधम्म-भाजनिय में केवल यह अधिक दिखला दिया गया है कि लोकोत्तर-ध्यान की अवस्था में ये किस प्रकार विद्यमान रहते है।
९--इद्धिपाद-विभंग
(४ ऋद्धियों का विवरण) चार ऋद्धियाँ हैं, दृढ़ संकल्प की एकाग्रता (छन्द-समाधि), वीर्य की एकाग्रता (विरिय-समाधि), चित्त की एकाग्रता (चित्त-समाधि) और गवेषणा की एकाग्रता (बीमंसा-समाधि) । यहाँ यह भी दिखाया गया है कि चार ऋद्धियों का चार मम्यक-प्रधानों से क्या पारस्परिक सम्बन्ध है।
१०--बोझङ्ग-विभंग
(बोधि के सात अंगों का विवरण) बोधि के सात अंग हैं, स्मृति (सति), धर्म की गवेषणा (धम्म-विचय), वीर्य (विरिय), प्रीति (पीति), चित्त-शान्ति या प्रश्रब्धि (पस्सद्धि), समाधि और उपेक्षा (उपेक्वा) । मज्झिम-निकाय के आनापान-सति-सुत्त के समान ही इनका यहाँ निदग है। अभिधम्म-भाजनिय में अवश्य इन विभिन्न अंगों की अभिधम्म की शब्दावली में व्याख्या की गई है और बाद में कुशल आदि के रूप म उनका विभाजन किया गया है।