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( ३९९ ) है कि वह भूत, वर्तमान या भविष्य का भी हो सकता है, व्यक्ति के बाहर या भीतर का भी हो सकता है, स्थूल या सूक्ष्म भी हो सकता है, शुभ या अशुभ भी हो सकता है, दूर का या समीप का भी हो सकता है । रूपविषयक उद्धरण यह है, “जो कुछ भी रूप है. भूत (अतीत) का, या वर्तमान (प्रत्युत्पन्न) का, या भविष्यत् (अनागत) का, व्यक्ति के बाहर का (बहिद्धा) या भीतर (अज्झत्तं) का, स्थूल (ओळारिक), या सूक्ष्म (सुखुम), शुभ (कुशल), या अशुभ (अकुशल), दूर का (दूरे), या समीप का (सन्तिके), उस सब की समष्टि ही रूप-स्कन्ध है ।" वेदनादि स्कन्धों के विषय में भी कुछ थोड़े-बहुत अन्तर से इसी क्रम का अनुसरण किया गया है। अभिधम्मभाजनिय में पञ्च-स्कन्ध की व्याख्या है । रूप के विवेचन में २२ त्रिकों और १०० द्विकों को लेकर अक्षरशः वही प्रणाली बरती गई है जो धम्मसंगणि में । अतः उसमें कुछ नवीनता नहीं है । शेष चार स्कन्धों के विवरणों में भी यद्यपि विषय और शैली की दृष्टि से कुछ नवीनता नहीं है, किन्तु इनके अलग अलग विवरण धम्मसंगणि की विषय-वस्तु को अधिक स्पष्ट कर देते हैं । वेदना के विषय में बताया गया है कि वह सदा स्पर्श (फस्सो-इन्द्रिय-विषय संनिकर्ष) पर आधारित है। वह लौकिक भी हो सकती है और अलौकिक भी, वितर्कादि से युक्त भी और उनसे रहित भी, सुख से युक्त भी, दुःख से युक्त भी, न-सुख न-दुःख से युक्त भी। कामावचर-भूमि या अन्नपावचर-भूमि की भी हो सकती है, चक्षु-संस्पर्श से भी युक्त हो सकती है, श्रोत्र-संस्पर्श से भी, आदि, आदि । एक संख्या से लेकर दस संख्या तक के वर्गीकरणों में वेदना-स्कन्ध का विस्तृत विवरण इस प्रकार किया गया है--
१--वेदना-स्कन्ध २. (१) सहेतुक (२) अहेतुक ३. (१) कुशल (२) अकुशल (३) अव्याकृत
४. (१) कामावचर (२) रूपावचर (३) अरूपावचर (४) अपरियापन्न (व्यक्तिगत जीवन-सत्ता से असम्बन्धित)