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( ३९३ )
.
४२-४९
५७-६९
= १-८, किन्तु करणा--मुदिता--सम्यक वाणी--.
सम्यक् कर्म--सम्यक् कर्म--सम्यक् आजीव - ९-२१
(ख) क्रिया-चित्त
७१-७२
१३ में से छन्द और प्रीति को घटाकर = ११ ७३-८० = १-८, किन्तु सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म एवं सम्यक्
आजीव को घटाकर ८१-८९
'धम्ममंगणि' के प्रथम अध्याय या कांड (चित्तुप्पादकंड) की विषय-वस्तु और शैली का परिचय ऊपर दिया गया है । वास्तव में 'धम्मसंगणि' का यही भाग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । दूसरा अध्याय ‘रूप-कंड' एक प्रकार इसी का पूरक है । प्रथम कांड में कुशल, अकुशल और अव्याकृत का वर्णन है। रूप भी अव्याकृत के अन्दर ही आता है। इसका वर्णन इस दूसरे कांड में किया गया है। रूप का अर्थ है चार महाभूत और उनसे निर्मित सारा वस्तुजगत् । 'धम्मसंगणि' में कहा गया है ‘चत्तारो च महाभूता चतुन्नंच महाभूतानं उपादाय रूपं, इदं वुच्चति सव्वं रूपं' अर्थात् चार महाभूत और चार महाभूतों के उपादानसे उत्पन्न सारा दृश्य रूपात्मक जगत्, यही कहलाता है रूप। इस प्रकार निर्दिष्ट रूप का वर्गीकरण ही इस कांड का प्रधान विषय है । १०४ प्रकार के दुक, १०३ प्रकार के त्रिक, २२ प्रकार के चतुष्क और इसी प्रकार ग्यारह तक अन्य अनेक प्रकार के वर्गीकरणों में दश्य जगत् को यहाँ बाँटा गया है । इन वर्गीकरणों में कुछ ऐसी प्रभावशीलता या मौलिकता नहीं है, जिसके लिए यहाँ इनका उद्धरण आवश्यक हो। शैली प्रायः वैसी ही है जैसी प्रथम कांड में ।
जैसा पहले कहा जा चुका है, 'धम्मसंगणि' के तीसरे और चौथे कांडों में पूर्व विवेचित वस्तु के ही संक्षेप है और अधिकतर प्रश्नोत्तर के रूप
१. देखिये ज्ञानातिलोक : गाइड शू दि अभिधम्म-पिटक, पृष्ठ १२ के सामने दी
हुई तालिका २. देखिये अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ९०-९४