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आ-क्रिया-चित्त (क) तीन अहेतुक क्रिया चित्त
क्रिया-चित्त उसे कहते हैं जो न स्वयं पूर्व जन्मों के कर्मों का विपाक होता है और न भविष्य के कर्मो का विपाक बनता है। उसमें केवल 'क्रिया-मात्र' (करणमत्त) रहती है। वास्तव में तो वह 'निष्क्रिय' ही होता है, क्योंकि उसका कोई विपाक नहीं बनता। वह इतना स्वाभाविक होता है कि उसका कोई हेतु भी नहीं दिखाया जा सकता। उदाहरणतः पूर्णता-प्राप्त मनुष्य (अर्हत्) की हमी । इसी लिए उसे अहेतुक भी कहते हैं । इसके तीन प्रकार हैं जैसे-- १. मनोधातु--उपेक्षा से युक्त । २. मनोविज्ञान धातु-उपेक्षा मे युक्त (सभी प्राणियों में पाया जाता है) ३. मनो विज्ञान धातु--सुख या सौमनस्य से युक्त (केवल अर्हत् में पाया जाता है)
'अभिधम्मत्थसंह' में इन तीन क्रिया-चित्रों को क्रमशः पंचद्वारावज्जन चित्त (इन्द्रिय रूपी पाँच द्वारों की ओर प्रवण होने वाला, बाहरी पदार्थ से उनका मंनिकर्प होने पर), मनोद्वारावज्जन चित्त (मन के द्वार की ओर प्रवण होने वाला) और हसितुप्पाद-चित्त (अर्हत् के हंसने की क्रियावाला चिन) कहा है। अर्हत का हँसना नितान्त स्वाभाविक अर्थात् अहेतुक होता है । न वह स्वयं किसी का विपाक होता है और न उसका आगे कोई विपाक बनता है । (ख) कामावचर-भूमि के ८ क्रिया-चित्त
कामावचर-भूमि के ८ कुशलचित्तों का उल्लेख पहले हो चुका है । साधारण अवस्था में उनका विपाक भी दूसरे जन्म में होता है। किन्तु अर्हत् की जीवन-क्रियाएँ तो किसी विपाक को पैदा करती नहीं। उनमें वासना या तृष्णा का सर्वथा अभाव रहता है। अतः ये क्रियाएँ जैसे दग्ध हो जाती है। अत: पूर्वोक्त ८ कुशलचित्त ही अर्हत् की जीवन-दशा से सम्बन्धित होकर आठ क्रिया-चित्त बन जाते हैं, अर्थात् वे अपने विपाक बनने के स्वभाव को छोड़ देते हैं। उनका बाहरी स्वरूप तो यहां भी पहले जैसा ही है, यथा१. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, असांस्कारिक २. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-संप्रयुवत, ससांस्कारिक