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( ३८६ ) चित्त-विभेदों का कुशल, अकुशल आदि शीर्षकों में विश्लेषण करने के साथसाथ ‘धम्मसंगणि' में चित्त की उन अवस्थाओं (चेतसिक) का भी विश्लेषण किया गया है, जो किसी विशेष प्रकार के चित्त के साथ ही उत्पन्न और निरुद्ध होती रहती हैं और जिनके आलम्बन और इन्द्रिय भी उसके समान ही होते हैं । इन्हें चेतसिक' कहते हैं । 'चेतसिक' संख्या में कुल ५२ है, जिनमें १३ ऐसे हैं जो सामान्य ('अन्य-समान') हैं अर्थात् जो सभी प्रकार के चित्तों में पाये जाते हैं। इन तेरह में भी ७ तो अनिवार्यतः सब चित्तों में पाये जाते है, और ६ प्रकीर्ण हैं. अर्थात् वे कभी पाये जाते हैं, कभी नहीं। २५ चेतसिकों का एक वर्ग 'शोभन चेतसिक' कहलाता है, जिनमें १९ चेतसिक ऐसे हैं जो सभी कुशल-चित्तों में पाये है और ६ ऐसे है जो सब में नहीं पाये जाते । १४ चेतसिक 'अकुशल' है, अर्थात् वे केवल अकुशल-चित्त में ही पाये जाते हैं। उनमें भी ४ मूलभूत अकुशल चेतसिक हैं, जो सभी अकुशल चित्तों में पाये जाते हैं । बाकी १० अकुशल चेतसिक ऐसे हैं जो सब अकुशल-चित्तों में नहीं पाये जाते । इनका वर्गीकरण इस प्रकार आसानी से समझा जा सकता है
५२ चेतसिक या चित्त की सहगत अवस्थाएँ १--१३ अन्य-समान (सभी चित्तों में सामान्यतः पाये जाने वाले) चेतसिक अ-3 सर्व-चित्त-साधारण अर्थात् अनिवार्यतः सब चित्तों में पाये जाने वाले,
जैसे कि १. स्पर्श (फस्सो) २. वेदना (वेदना) ३. संज्ञा (सञ्जा) ४. चेतना (चेतना) ५. एकाग्रता (एकग्गता) ६. जीवितेन्द्रिय (जीवितिन्द्रियं)
७. मनसिकार (मनसिकारो) आ. ६ प्रकीर्णक अर्थात् जो किसी चित्त में पाये जाते है, किसी में नहीं, जैसे कि ८. वितर्क (वितक्को) ९. विचार (विचारो)