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( ३२९ ) अतः यदि आज के भौतिकवादी जीवनके पूरे स्वीकरण के साथ तथागत-प्रवेदित धम्म-विनय को निभाना है तो वह अशक्य है । काम-वासना को लक्ष्य मानने वाले जन-ममाज के लिए तथागत ने उपदेश नहीं दिया। कम से कम उमके लिए उसे समझना तो अशक्य ही है। अतः विनय-नियमों को निभाने का काम तो ऐसे महान् साधकों का ही हो सकता है जो समाज की मान्यताओंसे ऊपर उठने की पूरी शक्ति रखते हों। कम से कम सामाजिक परिस्थितियों के नाम पर आदर्ग को गिराना तो हमें नहीं चाहिए। स्थविरवादी परम्पग ने विनय-नियमों पर उनके पुरे शब्दों और अर्थों के साथ जोर दिया है, इसका यही कारण है। माधन की निष्ठा अन्यन्त आवश्यक है । निष्ठावान् के लिए कभी कुछ असम्भव नहीं है। वह समाज और परिस्थितियों को अपने अनुकूल कर सकता है. यदि उमे दृढ़ विश्वास है कि जो कुछ अभ्यास वह करता है उसके पीछे बुद्धों का माग अनुभव और ज्ञान छिपा हुआ है और उसकी सच्चाई सामाजिक परम्पराओं या परिस्थितियों की अनुमति की अपेक्षा नहीं रखती। हाँ छोटे-मोटे विनयसम्बन्धी नियमों के विषय में शास्ता ने स्वयं ही आश्वासन दे दिया है कि उन्हें आवश्यकतानुसार छोड़ा जा सकता है। ये छोटे-मोटे विनय-सम्बन्धी नियम क्या है. इसके विषय में हम जानते हैं कि पूर्वकालीन धर्मसंगोतिकार भिक्षुओं में ही बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ और केवल अनेक सम्प्रदायों में बंट जाने के अतिरिक्त वे इसका कोई हल नहीं निकाल सके। वास्तव में इमका हल वाहर से हो ही नहीं मकता। कोई भी बाहरी विधान साधक को यह नहीं बतला सकता कि यह नियम छोड़ने योग्य है या नहीं। इसके लिए तो आन्तरिक साधना में प्राप्त निर्मल विवेक-बुद्धि ही मनुष्य के पास सर्वोत्तम माधन है। केवल उसी के द्वारा यह निर्णय किया जा सकता है कि क्या अ-महन्द पूर्ण है और छोड़ देने योग्य है और क्या महत्वपूर्ण है और जीवन भर अनुल्लंघनीय है। इस प्रकार चाहे जो कुछ भी त्याज्य या पालनीय ठहरे, किन्तु यह निश्चित है कि जो त्याज्य होगा वह देश और काल मे उद्भूत तत्त्व होगा और जो पालनीय होगा वह मार्वभौम, मार्वकालिक, तत्त्व होगा, जिसमें हो तथागत-प्रवेदित धम्मविनय अधिकतर भग हुआ है। 'क्षुद्रानुक्षुद्र' को छोड़ देने का विधान कर तथागत न इमी देश-काल-उद्भूत तत्त्व मे विमुक्त हो जाने का भिक्षु-मघ को अन्तिम उपदेश दिया था, ऐसा हमारा मन्तव्य है। इस प्रकार विनय-मम्बन्धी नियमों में न बाहरी कर्मकांड की गन्ध तक है और न वे साधकों के उस स्वबुद्धि-निर्णय के