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विनय-पिटक के नियमों में आधारभूत विश्वजनीन तत्व कितना है अथवा कितना वह देश और काल की विशिष्ट परिस्थितियों से उद्भूत है, यह एक बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है । नगई ने अपने संक्षिप्त विनय-सम्बन्धी निबन्ध में इस प्रश्न को उठाया है और सामाजिक परिस्थितियों के परिवर्तित स्वरूपों का विवेचन करते करते वे उस हद तक पहुंच गए हैं, जहाँ तक स्थविरवादी बौद्ध परम्परा तो उनके माय जा ही नहीं सकती, धर्म और साधना का कोई भी भारतीय विद्यार्थी भी जहाँ तक जाना पसन्द नहीं करेगा। उदाहरणतः स्त्री-संलाप आदि अनेक बातों के साथ साथ भिक्षु के एकागनिक (एकाहारी) होने सम्बन्धी व्रत के अभ्यास को भी नगई ने इस आधुनिक युग में असम्भव और कदाचित् अनावश्यक मान लिया है। निश्चय ही यह सीमा को अतिक्रमण कर जाना है। समाज और जीवन के बाहरी रूपों में परिवर्तन होने के साथ-साथ आज के मनुष्य के लिए उनके मूल्यों के अंकन में भी परिवर्तन हो चुका है । वह भीतर से मूल्य अंकन करने के बजाय आज बाहर पे करने लगा है। यदि इस दृष्टि से विनय-नियमों को आज देखा जाय तब तो उनमें से अधिकांश नियमों का अभ्यास ही व्यर्थ है। मज्जिम-निकाय के कीटागिरि सुत्त (२०१०) में हम पढ़ते हैं कि बुद्ध के कुछ शिष्य भिक्षु अश्वजित् और पुनर्वसु नामक विनयहीन भिक्षुओं से जा कर कहते हैं, “आवुसो ! भगवान् रात्रि-भोजन मे विग्त हो कर भोजन करते है । भिक्ष-संघ भी रात्रि-भोजन से विरत हो कर भोजन करता है। ऐसा करने से वे आरोग्य, उत्माह, बल और सुखपूर्वक विहार अनुभव करते हैं। आओ आवुमो ! तुम भी गत्रि-भोजन में विरत हो कर भोजन करो। तुम भी आरोग्य, उत्साह, बल और सुखपूर्वक विहार को अनुभव करोगे।" अश्वजित् और पुनर्वस नामक विनय-भ्रप्ट भिक्षुओं ने उत्तर दिया, “आवसो! हम तोगाम को भीखाते हैं, प्रातः भी खाते हैं. दोपहर भी खाते है और दोपहर बाद भी। मायं, प्रातः, मध्यान्ह, विकाल (दोपहर बाद) सब समय खाते भी हम आरोग्य, उन्माह, बल और मुखपूर्वक विहार करते घूमते है। हम सायं भी खायेंगे, प्रातः भी, दिन में भी, विकाल में भी।” जैमा तर्क अश्वजित् और पुनर्वसु ने दिया वैमा आज कोई भी दे सकता है । और आज की परिस्थिति में वह कुतर्क भी नहीं लगेगा। आज मनुष्य के मूल्यांकन का माग विधान ही बदल गया है।
१. 'बुद्धिस्ट विनय डिसिप्लिन और बुद्धिस्ट कमांडमेन्ट्स,' शीर्षक, बुद्धिस्टिक स्टडीज, (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ३६५-३८३.