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( ३५५ ) पर कनिष्क के काल में आचार्य वसुबन्धु और अश्वघोष की अध्यक्ष में 'विभाषा' नामक एक महाभाष्य लिखा गया, जिसका अनुसरण करने के कारण वैभाषिक नामक बौद्ध सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई। ज्ञान-प्रस्थान शास्त्र एक बृहत् ग्रंथ है। इसमें आठ परिच्छेद हैं, जिनमें कुल मिलाकर श्लोकों की संख्या १५०७२ है। जैसा पहले कहा जा चुका है, मूल संस्कृत तो मिलता ही नहीं, इस सम्पूर्ण ग्रंथ का अभी अंग्रेजी अवाद भी नु प्रकाशित नहीं हुआ है। अत: चीनी-भाषा मे अनभिज्ञोंके लिये अभी तुलनात्मक अध्ययन का मार्ग पराश्रित ही हो सकता है। प्रो० तकाकुसु द्वारा प्रदत्त सूचना के अनुसार ज्ञान-प्रस्थान-शास्त्र के ८ परिच्छेदों के नाम और विषय इस प्रकार हैं१. प्रकीर्णक-लोकोत्तर धर्म, ज्ञान पुद्गल, अरूप, अनात्म आदि स्फुट विषय २. संयोजन-अकुशलमूल, सकृदागामी, मनुष्य, दस-द्वार आदि ३. ज्ञान-आठ क्षैक्ष्य-अक्ष्य भूमियाँ, पाँच दृष्टियाँ, पर-चित्त-जान.
आर्य-प्रज्ञा आदि ४. कर्म-अकुशल कर्म, असम्यक् वाणी, विहिंसा, व्याकृत, अव्याकृत आदि ५. चार महाभूत--इन्द्रिय, संस्कृत, दृष्ट, सत्य, अध्यात्म आदि ६. इन्द्रियाँ-२२ इन्द्रियाँ, भव, स्पर्श आदि। ७. समाधि--अतीतावस्था, प्रत्यय, विमुक्ति आदि ८. स्मृत्युपस्थान--कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना, धर्मानुपश्यना.
तृष्णा, संज्ञा, ज्ञान-समय आदि उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि ज्ञान-प्रस्थान-शास्त्र की विषय-वस्तु इतनी विस्तृत है कि उसमें पालि अभिधम्म-पिटक के कई ग्रन्थों के अंशतः विवरण उपस्थित दिखाये जा सकते है। विशेषतः खद्दक-निकाय के 'पटिसम्भिदामग्ग' से इस ग्रन्थ की विषय-वस्तु की अधिक समानता है, ऐसा मत स्वर्गीय डा० बेणीमाधव बाडआ ने प्रकाशित किया है, जो ठीक कहा जा सकता है । (२) प्रकरण-पाद स्थविर वसमित्र की रचना कही जाती है । यह वसुमित्र कनिष्क-कालीन प्रसिद्ध सर्वास्तिवादी आचार्य आर्य वसुमित्र से भिन्न और उनसे पूर्वकालीन हैं। इनका काल बुद्ध
१. जर्नल ऑव पालि टैक्सट सोसायटी, १९०४-०५ पृष्ठ १२४ (डा० तकाकुसु
का 'दि सर्वास्तिवादिन अभिधर्म बुक्स' शीर्षक निबन्ध)