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की भावना से युक्त ( उपेक्खा - सहगत ) । इतना समझ लेने पर अब धम्मसंगणि में निर्दिष्ट निम्नलिखित आठ कामावचर - कुशल- चित्तों को देखिए--)
यथा-
१. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान- संप्रयुक्त, असांस्कारिक २. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ३. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान- विप्रयुक्त, असांस्कारिक ४. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान- विप्रयुक्त, ससांस्कारिक ५. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान- संप्रयुक्त, असांस्कारिक ६. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान- संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ७. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, असांस्कारिक ८. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, ससांस्कारिक
(ख) रूपावचर भूमि के ५ कुशल - चित्त - कामावचर-भूमि से आगे बढ़कर योगी पृथ्वी, जल, तेज आदि २६ रूपवान् पदार्थों को आलम्बन ( कर्मस्थान ) मानकर ध्यान करता है । इम ध्यान की पाँच क्रमिक अवस्थाएँ होती हैं, जिनका मनोवैज्ञानिक स्वरूप इस प्रकार है-
१. वितर्क, विचार, प्रीति,
सुख
२.
३.
४.
1
77
23
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27
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एकाग्रता वाला प्रथम ध्यान
द्वितीय ध्यान तृतीय ध्यान चतुर्थ ध्यान
पंचम ध्यान
17
13
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उपेक्षा ( समचित्तत्व )
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(ग) अ - रूपावचर भूमि के ४ कुशल- चित्त ( रूपावचर-ध्यान से आगे बढ़कर योगी रूपवान् कर्मस्थानों को छोड़ देता है और रूप-रहित वस्तुओं का ध्यान करने लगता है, जिनकी चार क्रमिक अवस्थाएँ इस प्रकार है ( १ ) अनन्त आकाश का ध्यान ( २ ) अनन्त विज्ञान का ध्यान
नैव - संज्ञा - नासंज्ञा
( ३ ) अनन्त आकिंचन्य ( शून्यता ) का ध्यान और ( ४ ) (चित्त की वह सूक्ष्म अवस्था जिसमें न यह कहा जा सके कि
संज्ञा है और न यह
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