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संगणि में चूंकि चित्त के उपर्य क्त ८९ प्रकारों का विश्लेषण उसके कुशल अकुशल और अव्याकृत रूपों का मूलाधार लेकर ही किया गया है, अतः उसकी पद्धति का ही अनुसरण करते हुए हम इस विषय को स्पष्ट करेंगे । धम्मसंगणि में सर्वप्रथम जिज्ञासा की गई है 'कतमे धम्मा कुसला ?' अर्थात् कौन से धर्म कुशल है ?' इसका जो उत्तर दिया गया है, उसका निष्कर्ष इस प्रकार है--
१. कुसला धम्मा (क) कामावचर-भूमि के ८ कुसल-चित्त ।
कामनाओं के लोक में विचरण करता हुआ मनुष्य भी अपने चित्त को कुशल बना सकता है । इसके लिए यह आवश्यक है कि वह धीरे धीरे अपने चित्त को लोभ, द्वेष और मोह से विमुक्त करे। इसके बिना उसका चित्त कुशल या सात्विक नहीं हो सकता। जब कोई साधक शुभ कर्म करता है जिससे उसका चित्त सात्विक बनता है तो कभी तो वह ऐसा अपने मन में ठानकर ज्ञान-पूर्वक करता है, अर्थात वह ऐसा विचार-पूर्वक, सोचकर करता है कि ऐसा ऐसा करने से भविष्य के जीवन में मेरे कर्मों का विपाक कुशल बनेगा। इस प्रकार की उसकी चित्त-अवस्था ज्ञान-संप्रयुक्त या ज्ञानयुक्त कहलाती है । उदाहरणतः, एक मनुष्य बुद्धवन्दना करता है और सोचता है कि ऐसा करने से उसका शुभ कर्म-विपाक बनेगा तो उसका चित्त उस समय ज्ञान-संप्रयुक्त है। किन्तु यदि एक बालक इसी काम को दूसरे के अनुकरण पर करता है तो उसके इस काम में इस ज्ञान की भावना नहीं है कि यह कर्म उसके लिए शुभ कर्म-विपाक का प्रसवकारी बनेगा । अतः उसका चित्त 'ज्ञान-विप्रयक्त' या ज्ञान से रहित है । इसी प्रकार यदि कोई कर्म दूसरे की प्रेरणा पर और झिझकपूर्वक किया जाता है तो वह 'ससांस्कारिक' (समंखारिक) है और यदि वह अपनी ही आन्तरिक प्रेरणा और विना हिचकिचाहट के किया जाता है तो वह 'असांस्कारिक' (अमंखारिक) है। इसी प्रकार कोई कर्म सौमनस्य की भावना से युक्त (मोमनस्स-सहगत) हो सकता है और कोई उपेक्षा