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( ३७५ ) है । चिन की चौथी अवस्था का नाम है लोकोतर-भूमि । यहाँ आते-आते योगी अनित्य, दुःख और अनात्म का चिन्तन करते-करते निर्वाण रूपी आलम्बन पर ध्यान करने लगता है, जिससे उसकी सारी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। एक-एक करके वह अपने सारे बन्धनों को नष्ट कर डालता है और उसका चित्त उस सर्वोत्तम भूमि में पहुँच जाता है. जो लोकोत्तर है । इस भूमि का संबंध चार आर्य-मार्गों और उनके फलों (स्रोत आपत्ति आदि) से है। यहाँ पहुँचकर फिर तृष्णा या अविद्या के फन्दे में पड़ना नहीं होता। चित्त फिर लोभ, द्वेष और मोह की ओर नहीं लौट सकता । इसीलिए यह भूमि लोकोत्तर है। चित्त को इन चार भूमियों को समझ लेने के बाद हमें चित्त के कुशल, अकुशल और अव्याकृत स्वरूप को कुछ और अधिक समझ लेना चाहिए । फिर चित्त के भेदों को समझना हमारे लिए आसान हो जायगा। कुशल चित्त वह है जो लोभ, द्वेष ,मोह आदि से रहित हो । अकुशल चित्त इनसे युक्त होता है। अव्याकृत चित्त वह है जो इच्छा से रहित होता है । या तो यह अत्यंत स्वाभाविक रूप से पूर्व-जन्म के कर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त होता है जिसमें इच्छा करने या न करने का कोई मवाल ही नहीं होता और इस जन्म के कर्मों से संबद्ध न होने कारण जिसका स्वरूप भी अस्पष्ट और अव्याख्येय (अव्याकृत) होता है, या यह विगत-तप्ण उस पूर्ण पुरुष (अर्हत्) की चित्तावस्था का सूचक होता है जिसके इस जन्म के कुशल कर्म भी वास्तव में हेतु या इच्छा से रहित होते हैं और जो आगे के लिए विपाक भी पैदा नहीं करते । इसलिए वे भी अव्याकृत या अव्याख्येय होते है । इस दृष्टि से अव्याकृत चित्त के दो भाग किये गये है (१) विपाक-चित्त, जो पूर्वजन्म के कुशल और अकुशल दोनों प्रकार के चित्तों के परिणाम स्वरूप हो सकते हैं और (२) क्रिया-चित्त, जो अर्हत् की चित्त-अवस्था के सूचक है और जिनमें अर्हत् के चित्त की क्रिया-मात्र ही रहती है, पर वास्तव में जो निष्क्रिय' होते है । पूर्णता प्राप्त ज्ञानी पुस्प (अर्हत्) का चित्त सक्रिय चेतनात्मक होते हुए भी वह कर्म-विपाक की दृष्टि से निष्क्रिय होता है। चूंकि अर्हत् के सभी कर्म ज्ञानाग्नि द्वारा दग्ध कर दिये गये होते है, अत: उसका चित्त 'क्रिया' भर करता है, उसका आगे के लिए कोई विपाक या परिणाम नहीं बनता। चित्त की उपर्युक्त