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( ३७३ ) ९९. अ. जिनके आगे बढ़कर भी कुछ धम्म हैं--(स-उत्तरा)
आ. जिनसे आगे बढ़कर और कोई धम्म नहीं हैं--(अनुत्तरा) १००. अ. जो धम्म दुःखदायी पाप-कर्मों से युक्त हैं--(सरणा) ___ आ. जो धम्म दुःखदायी पाप-कर्मों से युक्त नहीं है---(अरणा)
उपर्युक्त १२२ वर्गीकरणों में धम्मों का विश्लेषण 'धम्मसंगणि' में किया गया है । वास्तव में इन वर्गीकरणों में भी प्रथम वर्गीकरण (कुशल, अकुशल, अव्याकृत) ही नैतिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है । अत: धम्मसंगणि में मानसिक और भौतिक जगत् के सारे तत्वों को प्रधानतः इन्हीं तीन शीर्षकों में पहले विभक्त किया गया है । वहाँ पहले उपर्युक्त तत्वों का विश्लेषण कर यही जिज्ञासा की गई है कि इनमें से कौन से धम्म कुशल हैं, अकुशल हैं, या अव्याकृत हैं। शेष १२१ वर्गों में धम्मों के विश्लेषण को तो अन्त में प्रश्न और उत्तर के रूप में ही संक्षेप में समझा दिया गया है । अतः धम्मसंगणि का मुख्य विषय है धम्मों का कुशल, अकुशल और अव्याकृत के रूप में विश्लेषण । धम्मसंगणि की विषय वस्तु चार कांडों में विभाजित की गई है, (१) चित्तुप्पाद-कंड (२) रूपकंड (३) निक्खेपकंड और (४) अत्थुद्धार कंड । पहले दो कांडों में मानसिक और भौतिक जगत् की अवस्थाओं का कुशल ,अकुशल और अव्याकृत के रूप में विश्लेषण है । पहले कांड में कुशल, अकुशल और अंशतः अव्याकृत का विवेचन है और दूसरे कांड में अव्याकृत के अधूरे विवेचन को पूरा किया गया है । तीसरे और चौथे कांडों में इनका संक्षेप है और शेष १२१ वर्गों के स्वरूप को प्रश्नोत्तर के रूप में समझाया गया है । चूंकि धम्मों की गणना कुशल, अकुशल आदि वर्गों में करने के अतिरिक्त स्वयं उनके स्वरूप का भी विश्लेषण धम्मसंगणि में किया गया है, अतः इस दृष्टि से उनके चार कांडों को चित्त, चेतसिक और रूप (जिन तीन वर्गों में उसने धम्मों को उनके स्वरूप भेद की दृष्टि से विभक्त किया है ) इन तीन शीर्षकों में भी विभक्त किया जा सकता है । इस दृष्टि से प्रथम कांड
चित्त ,चेतसिक और उनके नाना उपविभागों का एवं दूसरे कांड में रूप (भौतिक जगत का समष्टि-गत रूप) का वर्णन है। तीसरे और चौथे कांडों में यहाँ भी संक्षेप ही हैं । धम्मसंगणि के इस द्विविध विभाग के कारण ही उसके विवेचन में इतनी दुरूहता आ गई है । पहले हम