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( ३४० ) उसमें निर्दिष्ट २२ त्रिकों और १०० द्विकों के वर्गीकरण पर ही अभिधम्म का संपूर्ण धम्म-विवेचन आधारित है । पुग्गलपत्ति और धातुकथा का भी आरंभ इसी प्रकार मातिकाओं से होता है। वास्तव में संपूर्ण अभिधम्म ग्रन्थों की शैली हो पहले मातिका या उद्देस देकर बाद में उनके निद्देस (व्याख्या) देने की है। पहले दिखाया जा चका है कि पिटक-साहित्य में जहाँ मातिकाओं का उल्लेख हुआ है (धम्मधरो विनयधरो मातिकाधरो पंडितो-विनय-पिटक--चुल्लवग्ग) वहाँ उनसे किन्हीं विशिष्ट ग्रन्थों का बोध न होकर केवल सिद्धान्तात्मक सचियों का हो होता है, जिनका उपयोग भिक्षु लोग स्मरण करने की सुगमता के लिए करते थे। इसी प्रकार दीघ-निकाय के संगीति-परियायसुत्त और दसुत्तर-सुत्त, मझिम निकाय के सळायतनविभंग-सुत्त और धातुविभंगसुत्त, एवं अंगुत्तर-निकाय के अनेक संख्याबद्ध सुन, अभिधम्म-पिटक के वर्गीकरणों के मूल स्रोत माने जा सकते है। इन्हीं के आधार पर अभिधम्म-पिटक का विकास हुआ है। यह इससे भी प्रमाणित होता है कि महायानी परम्परा के संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों में 'अभिधर्म' के लिए 'मात्रिका' शब्द का ही प्रयोग किया गया है । अतः समन्तपासादिका के वर्गन को अअरशः सत्य न मानकर हम उससे इतना निष्कर्ष तो निकाल ही सकते है कि मातिकाओं और ऊपर निर्दिष्ट सुत्त-पिटक के अंशों से अभिधम्म-पिटक के निर्माण का कार्य प्रथम संगीति के समय ही आरम्भ हो गया था और दूसरी संगीति के समय तक आते आते उसने ऐसा निश्चित (अन्तिम नहीं) रूप प्राप्त कर लिया था, जिसके आधार पर दूसरे संप्रदायवालों के लिये उसे बद्ध-वचन मानने या न मानने का महत्वपूर्ण प्रश्न उठ सकता था। अत: पाँचवी शताब्दी ईसवी पूर्व अभिधम्म-पिटक के प्रणयन को उपरली काल-सीमा और २५० ई० पू० (जिमे अधिक सन्देहवादी विवेचक घटा कर प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व तक भी ला सकते
१. अभिधम्म-पिटक के अंगुत्तर-निकाय सम्बन्धी आधार के लिये मिलाइये ई० हार्डी : अंतर-निकाय, जिल्द पाँचवीं, पृष्ठ ९ (प्रस्तावना) (पालि टैक्स्ट
सासायटी द्वारा प्रकाशित संस्करण) २. देखिये श्रीमती रायस डेविड्स : ए बुद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीकल एथिक्स (धम्मसंगगि का अनुवाद) द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ९, १०५-११३; ओल्डनबर्ग और रायस डेविड्स : सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द १३, पष्ट २७३; कर्न : मेनुअल ऑव बुद्धिषम, पृष्ठ ३, १०४ ।