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( ३४३ ) के क्रमशः सच्चविभंग सुत्त, सतिपट्ठान सुत्त और धातुविभंग सुत्त पर आधारित हैं। इसी प्रकार 'विभंग' के अनेक अंश खुद्दक-निकाय के ग्रन्थ 'पटिसम्भिदामग्ग' पर भी अवलंबित हैं। इसलिए कालक्रम की दुष्टि से 'विभंग' को डा० लाहा ने 'पुग्गलपत्ति ' के बाद दूसरा ग्रन्थ माना है। 'विभंग' को उन्होंने अभिधम्मसाहित्य के विकास की उस स्थिति का सूचक माना है जब कि अभिधम्म की शैली पूर्णतः निश्चित नहीं हुई थी और वह सुत्तन्त की शैली से मिश्रित थी। चूंकि 'धम्मसंगणि' में अभिधम्म-शैली का विकसित रूप मिलता है, इसलिए परम्परागत अनुश्रुति के विपरीत उन्होंने 'धम्मसंगणि' को विभंग के वाद का ग्रन्थ माना है। 'धम्मसंगणि' का ही पूरक ग्रन्थ 'धातुकथा' है । अत: 'विभंग' के वाद 'धम्मसंगणि' और उसके बाद 'धातुकथा', यह क्रम डा० लाहा ने स्वीकार किया है। 'विभंग' ही 'यमक' की भी पृष्ठभूमि है। 'विभंग' के एक भाग ‘पच्चयाकार विभंग' का ही विस्तृत निरूपण वाद में 'पट्ठान' में मिलता है। अतः धम्मसंगणि, धातुकथा यमक और पट्टान ये चारों ग्रंथ विभंग पर ही आधारित हैं और काल-क्रम में उससे बाद के हैं, ऐसा डा० लाहा का मत है। इन सबसे वाद की रचना 'कथावत्थु' है। इस प्रकार 'पुग्गलपत्ति ' सबसे पूर्व की रचना, 'कथावत्थु' सबसे अन्तिम रचना, इन दोनों के बीच में 'विभंग' जिस पर ही आधारित 'धम्मसंगणि', 'धातुकथा', "यमक' और 'पट्ठान' यही अभिधम्म-पिटक के ग्रंथों के काल-क्रम के विषय में डा० लाहा का निष्कर्ष है। इसे डा० लाहा ने इस प्रकार दिखाया है।'
१ पुग्गलपत्ति २ विभंग- (अ) धम्मसंगणि-धातुकथा
(आ) यमक (इ) पट्ठान
३ कथावत्थु डा० लाहा का काल-क्रम-निश्चय अंशतः ठीक जान पड़ता है। किसी भी पालि साहित्य के विद्यार्थी को इसमें सन्देह नहीं हो सकता कि 'कथावत्थु' अभिधम्म पिटक की अन्तिम रचना है। अतः अभिधम्म-पिटक के ग्रंथों का परम्परागत परि
१. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ २६