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है, जिसके आधार पर हम अधिक निश्चित रूप से दो ग्रंथों का या एकही ग्रंथ के दो अंशों के पूर्वापर भाव का अधिक निश्चय के साथ निर्णय कर सकते हैं। यह एक सर्व-विदित तथ्य है कि विभंग के प्रथम खंड में ही लेखक की धम्मसंगणि में विवेचित धम्मों की गणना मे अभिज्ञता प्रकट हो जाती है, जिसमें उसने कुछ नये धम्मों का
और समावेश कर दिया है। विभंग ने धम्मसंगणि की 'मातिका' में निर्दिष्ट २२ त्रिकों और १०० द्विकों की विवरण-प्रणाली को ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया है।' विभंग के प्रथम तीन खण्ड स्कन्ध, आयतन और धातुओं का विवेचन करते है. अतः अंगतः धम्मसंगणि के प्रति उनका भी पुरकत्व सुनिश्चित है । २ 'धम्मसंगणि' की शैली विश्लेपणात्मक अधिक है, जब कि विभंग की संश्लेषणात्मक अधिक है। इस तथ्य से भी विभंग धम्मसंगणि के बाद की ही रचना जान पड़ती है। धम्ममंगणि से विभंग की ओर विकास-क्रम सामान्य से विशेष की ओर विकास क्रम है। अतः धम्मसंगणि को ही विभंग से पूर्व की रचना मानना अधिक युक्तिसंगत है। श्रीमती रायस डेविड्स ने भी माना है कि विभंग अपने पूर्व धम्मसंगणि की अपेक्षा रखती है ।४ गायगर" और विटरनित्ज़ ने भी उसे धम्मसंगणि का पूरक रूप ही माना है। अभिधम्म-साहित्य के प्रसिद्ध भारतीय वौद्ध विद्वान् भिक्षु जगदीग काश्यप भी विभंग की विषय वस्तु को धम्मसंगणि की पूरक स्वरूप ही मानते है । अतः 'धम्मसंगणि' को ही 'विभंग' की अपेक्षा पूर्वकालीन रचना मानने की ओर विद्वानों की प्रवणता अधिक है । 'विभंग' के 'रूपवखन्ध विभंग' का अधिक विस्तृत विवेचन 'धम्मसंगणि' में पाया जाना 'धम्मसंगणि' के बाद की रचना होने का ही सचक नहीं माना जा सकता। बल्कि यह तथ्य केवल यही दिखाता है कि धम्मसंगणि में इसका सांगोपांग विवेचन हो जाने के बाद विभंग में उसके इतने विस्तार में जाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। इतनी अधिक दृष्टियों से
१. विन्टरनिन्ज : हिस्ट्री ऑव इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १६७ २. ज्ञानातिलोकः गाइड शू दि अभिधम्म-पिटक, पृष्ठ १७ ३. उपर्युक्त के समान हो। ४. विभंग, भूमिका, पृष्ठ १३ (पालि टैक्सट् सोसायटी का संस्करण) ५. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ १७ ६. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १६७ ७. अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १०४