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अभिधम्म का बड़ा मननशील अध्येता था और उसने 'धम्मसंगणि' का सिंहली भाषा में अनुवाद भी किया। अतः स्थविरवाद परम्परा में अभिधम्म-पिटक का सदा से बहुत सम्मान रहा है । स्थविरवाद-परम्परा से भिन्न बौद्ध संप्रदायों में अभिधम्म-पिटक को उतना प्रामाणिक बद्ध-वचन नहीं माना गया है। हम जानते है कि स्वयं उत्तरकालीन होनयानी संप्रदाय में सौत्रान्तिक नाम का एक वर्ग था जो अभिधम्म पिटक को प्रामाणिक नहीं मानता था। उसके लिए केवल मन-पिटक ही प्रामाणिक बुवचन था। इतना ही नहीं, अत्यंत पूर्वकाल में ही हम स्थविरवादियों के अन्दर ही भिक्षुओं के एक ऐने वर्ग की सचना पाते हैं जो अभिधम्म-पिटक की प्रामाणिकता को नहीं मानता था और केवल मन. पिटक में ही अधिक विश्वास करता था। '
असालिनी' में दो भिओं का संलाप दिया हुआ है, जिससे यह बात स्पष्ट होती है--
“भन्ते ! आप ऐसी लम्बी पंक्ति को उद्धृत कर रहे है, जैसे कि मानों आप सुमेरु को ही परिवेष्टित करना चाहते हों। भन्ते ! यह किमकी पंक्ति है ?"
“आवस ! यह अभिधम्म की पंक्ति है ।"
"भन्ते ! आप अभिधम्म की पंक्ति का क्यों उद्धरण देते हैं ? क्या आपको यह उचित नहीं कि आप बुद्ध द्वारा उपदिष्ट किन्हीं दूसरी पंक्तियों का उद्धरण दें।"
"आवस ! अभिधम्म का उपदेश किसका है ?" "निश्चय ही बद्ध का नहीं है ।" "पर आवम ! क्या तुमने विनय-पिटक को पढ़ा है ?" "नहीं भन्ले । मैने उसे नहीं पढ़ा है ।" आदि, आदि
पुनः 'दीपवंम' के वर्णन में ही हम देखते हैं कि वैशाली की संगीति के अवसर पर ही 'महासंगीतिक' भिक्षुओं ने अन्य ग्रन्थों के साथ अभिधम्म-पिटक की भी प्रमाणवत्ता स्वीकार नहीं की थी। इससे हमारा संदेह अभिधम्म-पिटक की प्रमाणवत्ता के विषय में अवश्य बढ़ जाता है । काल-क्रम और महत्ता में अवश्य अभिधम्मपिटक को मन और विनय पिटक के बाद मानना पड़ेगा, इसे प्राय: सभी निष्पक्ष बौद्ध विद्वान आज भी स्वीकार करते हैं । किन्तु चंकि अभिधम्म-पिटक का अर्वाचीनतम ग्रन्थ (कथावत्थु) भी ईसवी पूर्व तृतीय शताब्दी की रचना है और उसके अलावा अन्य किसी ग्रन्थ के साथ किसी रचयिता का नाम जोड़ा नही गया है,
१. दोपवंस ५।३५-३७ (ओल्डनबर्ग का संस्करण)