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में सम्मिलित कर दिया। इस प्रकार यह स्थविरवादी बौद्ध परम्परा अभिधम्म पिटक को भी सुत्त-पिटक और विनय-पिटक के समान हो बुद्ध-वचन मानने को पक्षपातिनी है । रचना-काल ___ उपर्युक्त अनुश्रुति अभिधम्म-पिटक की प्रशंसा में अर्थवाद मात्र है । वास्तव में उमी हद तक वह ठीक भी है। वैसे तो उसने भी यह स्वीकार कर ही लिया है कि अभिधम्म-पिटक का कम से कम एक ग्रन्थ 'कथावत्थु' अशोक-कालीन रचना है ओर उसका वर्तमान रूप स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्म का दिया हुआ है । बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में धम्म और विनय को ही प्रधानता है। ऐसा लगता है कि उन्हीं के आधार पर संग्रथित अभिधम्म को भी उन्हीं के समान प्रमाणवत्ता देने के लिए स्थविरों ने उपर्य क्त अर्थवाद की सृष्टि की है । आधुनिक विद्यार्थी के लिए सबसे अधिक कठिन समस्या तो यह है कि आज जिस रूप में अभिधम्मपिटक हमें मिलता है, वह कहां तक सीधा बुद्ध-वचन है अथवा उसका प्रणयनकिन-किन काल-श्रेणियों में बुद्ध-वचनों के आधार पर हुआ है। इस दृष्टि से देखने पर आज जिस रूप में अभिधम्म-पिटक हमें मिलता है, उसकी प्रमाण-वत्ता सुन और विनय को अपेक्षा निश्चयतः कम रह जाती है और उमका प्रणयन-काल भी उतनी ही निश्चिततापूर्वक उसके बाद का ठहरता है।
'अट्ठसालिनी' को निदान-कथा में कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नों के साथ दो प्रश्न आचार्य बुद्धघोष ने बड़े महत्त्व के किये है। पहला प्रश्न है--'अभिधम्म पिटक किसका वचन है' ? दूसरा प्रश्न है--'किसने इसे एक पीढ़ी से दुसरी पोढ़ी तक पहुँचाया है ?' पहले प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा है 'पूर्ण पुरुष, तथागत भगवान् सम्यक सम्बुद्ध का और दूसरे के उत्तर में कहा है 'उपदेगकों की न टटने वाली परम्परा ने' । इसी परम्परा का उल्लेख करते हुए वहाँ कहा गया है "ततीय संगोति तक सारिपुत्र, भद्दजि, सोभित, पियजालि, पियपाल, पियदस्सि, कसियपुत्त, सिग्गव, सन्देह, मोग्गलिपुत्त, विमदन, धम्मिय, दासक, सोनक, रेवत, आदि स्थविरों की परम्परा ने अभिधम्म-पिटक का उपदेश दिया। उसके बाद जाको शिष्य-परम्परा ने इस काम को अपने हाथ में लिया। इस प्रकार भारतवर्ष (जम्बुद्वीप) में उपदेशकों को अविच्छिन्न परम्परा एक पोढ़ी से दूसरी पीढी तक अभिधम्म को पहुँचाती रही। इसके अनन्तर सिंहल द्वीप में भिक्षु महिन्द, इद्धिय, उतिय, भहनाम और सम्बल आये। यही महामनीषी भिक्षु अभिधम्म-पिटक को भी