________________
पाँचवाँ अध्याय
अभिधम्म-पिटक अभिधम्म-पिटक
अभिधम्म-पिटक पालि तिपिटक (त्रिपिटक) का तीसरा मुख्य भाग है । 'अभिधम्म' शब्द का प्रयोग 'अभि-विनय' शब्द के साथ-साथ क्रमश: धम्म और विनय सम्बन्धी गंभीर उपदेश के अर्थ में, सुत्त-पिटक में भी हुआ है ।' संभवतः इनी के आधार पर आचार्य बुद्धघोष ने अभिधम्म का अर्थ किया है--'उच्चतर धम्म या 'विटोप' धम्म । 'अभिधम्म' में 'अभि' शब्द को उन्होंने 'अतिरेक' या 'विगेप' का वाचक माना है। वास्तव में यह 'अनिययता' या 'विशेषता' धम्म
१. देखिये संगोति-परिवाय-सुत्त (दोष-३।१०); दसुत्तर-सुत्त (दोघ. ३१११); गुलिस्सानि-सुत्तन्त (मज्झिम. २।२।९); किन्ति-सुत्तन्त (मजिकम-३॥१॥३) । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने यहाँ इन शब्दों का अर्थ केवल धर्म-सम्बन्धी (अभिधम्म) और विनय-सन्बन्धी (अभि-विनय) किया है, जो पूरे अर्थ को व्यक्त नहीं करता। २. अतिरेक-विसेस-थदीपको हि एत्थ अभि-सो। असालिनी, पृष्ठ २ (पालि टैक्सट सोसायटी का संस्करण); मिलाइये सुमंगल विलासिनी, पष्ठ १८ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण); प्रसिद्ध महायानी आचार्य आर्य असंग ने 'अभिधर्म' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए (१) निर्वाण के अभिमुख उपदेश करने के कारण (अभिमुखतः) (२) धर्म का अनेक प्रकार से वर्गाकरण करने के कारण (आभीण्यात्) (३) विरोधी सम्प्रदायों का खंडन करने के कारण (अभिभवात्) एवं (४) सुत्त-पिटक के सिद्धान्तों का ही अनुगमन करने के कारण (अभिगतितः) 'अभिधर्म' शब्द की सार्थकता दिखलाई है। अभिमुखतोऽथाभीण्यादभिभवगतितोऽनिधर्मः ! महायानसूत्रालंकार १११३; आचार्य वसुबन्ध ने उपकारक स्कन्धादि से यात, विमल प्रज्ञा को ही अभिधर्म कहा है। प्रज्ञाऽपला मानुचनाऽभिधर्म: । अभिवर्मकोश ११२