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विनय-सम्बन्धी नियमों के विषय में भी कही जा सकती है | चेतन (चित्त) को ही कम्म (कर्म) कहने वाले शास्ता का यह बाहरी नियम विधान अन्तिम मन्तव्य नहीं हो सकता था, यह ऊपर के उद्धरणों से स्पष्ट है । किन्तु निर्बल, मल-ग्रस्त मानवता के लिए और क्या किया जाय ? बाहरी नियम-विधानों से काम नहीं चलता, वे अपूर्ण ठहरते हैं, किन्तु उनके प्रज्ञापन किये बिना काम भी नहीं चलता ! जब सम्यक् सम्बुद्ध ने मनुष्यों का शास्ता बनना स्वीकार कर लिया, उनके बीच रहना - सहना, घूमना-फिरना स्वीकार कर लिया, संघ को धारण करना स्वीकार कर लिया, मनुष्यों को विशुद्धि रूपी निर्वाण के मार्ग पर लगाना स्वीकार कर लिया, तो उनकी चित्त-स्थिति के लिए अनुकूल नियमविधान भी वे क्यों नहीं करते? उनके शिष्यों में जो प्रधान थे, वे स्वतः ही भगवान् के 'धम्म' के अनुसार आचरण करते थे । अतः उन्हें अलग मे विनय-सम्बन्धी नियमों का उपदेश करने की आवश्यकता नहीं थी । किन्तु 'बहुजनों' में अधिकांश तो मल-ग्रस्त प्राणी ही थे । उन्हीं के पतन को देख कर भगवान् ने बाहरी नियमों का विधान किया, जिन्हें हम आज विनय-पिटक में देखते हैं । इनमें से बहुत कुछ बाहरी होते हुए भी अधिकांश मानसिक भित्ति पर ही आश्रित है, जो वुद्ध-मन्तव्य की सब से बड़ी विशेषता है । संयुत्त निकाय के भिक्खु संयुक्त्त में किस प्रकार भगवान् बुद्ध ने नन्द और तिस्स तथा अन्य भिक्षुओं को विनय-सम्बन्धी नियमों को कड़ाई के साथ पालन करने का आदेश दिया है, यह हम पहले देख चुके हैं ।
१. चेतनाहं भिक्खवे कम्मं वदामि । चेतयित्वा हि कम्मं करोति कायेन वाचाय मनसा वा। अंगुत्तर निकाय ।
२. केवल व्यावहारिक अर्थ में । वास्तव में तो संघ की पूरी व्यवस्था करते हुए भी भगवान् सदा निलिप्त ही रहे । जब आनन्द उनसे अन्तिम समय पर भिक्षु संघ के लिए कुछ कहने लिए प्रार्थना करते हैं, तो भगवान् कहते हैं, "आनन्द ! जिसको ऐसा हो कि मैं भिक्षु संघ को धारण करता हूँ. . वह जरूर आनन्द ! भिक्षु संघ के लिए कुछ कहे । आनन्द ! तथागत को ऐसा नहीं है ।" एक और स्थान पर भगवान् अपनी निर्लेपता का साक्ष्य देते हैं "मागन्दिय ! धर्मों का अन्वेषण कर के मुझे 'में यह कहता हूँ' यह धारणा नहीं हुई ।"
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