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( ३२१ ) श्रमण-विरुद्ध आचरण किए है। यदि मंघ उचित समझे तो जो इन आयुप्मानों का दोष है और जो मेरा दोप है, इन आयुप्मानों के लिए भी और अपने लिए भी मैं तिणवित्थारक (घाँस से ढाँकना जैमा) बयान कीं, लेकिन बड़े दोष गहस्थसम्बन्धी को छोड़ कर । तव दूसरे पक्ष वालों में से चतुर भिक्षु को आमन में उठ कर ऐमा ही करना चाहिए। इस प्रकार आनन्द | तिणवित्थारक (तण से डॉकने जैमा) होता है"।१
भिक्षुओं के समान भिक्षणिओं के लिए भी अनेक आचरण सम्बन्धी नियमों का विधान था। आठ गुरु-धर्म तो भगवान ने प्रथम बार ही भिक्षणी-संघ के लिए स्थापित कर दिये गए थे, जो इस प्रकार है--- (१) मो वर्ष की उपसम्पदा पाई हुई भिक्षुणी को भी उसी दिन के सम्पन्न
भिक्षु के लिए अभिवादन, प्रत्युत्थान, अंजलि जोड़ना, सामीत्री कर्म
करना चाहिए। (२) जहाँ भिक्षु न हों, ऐसे स्थान में वर्षावास नहीं करना चाहिए। (३) प्रति आधे मास भिक्षणी को भिक्षु-संघ से पर्येषण करना चाहिए। (४) वर्षा-वास कर चुकने पर भिक्षुणी को दोनों संघों में देखें, मने, जाने
तीनों स्थानों में प्रवारणा करनी चाहिए। (५) जिस भिक्षुणी ने गुरु-धर्मों को स्वीकार कर लिया है उसे दोनों संघों
को मानना चाहिए। (६) किसी प्रकार की भिक्षुणी भिक्षु को गाली आदि न दे। (७) भिक्षुणिओं का भिक्षुओं को कुछ भी कहने का गम्ता बन्द है । भिक्षणी
को भिक्षु से वात नहीं करनी चाहिए। (८) भिक्षुओं का भिक्षुणिओं को कहने का रास्ता खुला है। अर्थात भिक्षुओं
को उन्हें उपदेश करने का अधिकार है। उपर्युक्त प्रधान नियमों के अलावा भिक्षुणियों के दैनिक जीवन के लिए अनेक माधारण नियम भी थे। उनमें कुछ भिक्षओं के समान भी थे, जैसे झट, गली आदि से विरति । कुछ विशिष्ट रूप से उनके लिए ही थे, जैसे एकान्त या अंधेर स्थान में किसी से सम्भाषण न करना, रात्रि में अकेली कहीं न जाना, सड़क पर भी किसी से अलग बात नहीं करना, किसी भी गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र स न
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१. सामगाम-सुत्त (मज्झिम. ३।११४; महापंडित राहुल सांकृत्यायन का अनुवाद)
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