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वस्त्रों के उचित समेटन और फैलाव के साथ उसे बरतना चाहिये, किस प्रकार उसे शान्त रहना चाहिये, जोर से हँसना आदि नहीं चाहिये, इन्हीं सब बातों का विस्तृत विवरण किया गया है और इनके तोड़ने पर फिर शिक्षा का विधान किया गया है । इन नियमों में से अधिकतर तत्कालीन शिष्टाचार से सम्बन्ध रखते हैं जो बौद्ध देशों में आज तक भी कुछ हद तक जीवित अवस्था में है।
सात अधिकरणसमथा धम्मा
___ संघ में विवाद होने पर उसकी शान्ति के उपाय के रूप में सात नियमों का विधान किया गया है । वे सात नियम हैं (१) संमुख-विनय (२) स्मति-विनय (३) अ-मूढ विनय (४) प्रतिज्ञात करण (५) यद्ध्यमिक () तत्पापीयसिक (७) तिणवत्थारक। चंकि संघ-शासन तथा तत्कालीन गणतन्त्रीय शासन-व्यवस्था की दृष्टि में ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, अतः इनका संक्षिप्त विवरण अपेक्षित होगा । भगवान् के मुख से ही मुनिये--"आनन्द ! संमुख विनय कैसे होता है ? आनन्द ! भिक्ष विवाद करते है। यह धर्म है या अधर्म : विनय या अविनय' ? आनन्द ! उन सभी भिक्षुओं को एक जगह एकत्रित होना चाहिये । एकत्रित होकर धर्म रूपी रस्मी का ज्ञान से परीक्षण करना चाहिये । जैसे वह बान्त हो उसी प्रकार उस झगड़े (अधिकरण) को शान्त करना चाहिये। इस प्रकार आनन्द ! संमुख विनय होता है। इस प्रकार संमुख विनय से भी किन्ही किन्ही झगड़ों (अधिकरणों) का शमन होता है । ___“आनन्द ! यद्भ्यसिक कैसे होता है ? आनन्द ! यदि भिक्षु अपने झगडे को उसी आवास (निवास-स्थान) में शान्त न कर सकें तो आनन्द! उन सभी भिक्षुओं को, जिस आवास में अधिक भिक्षु हैं, वहाँ जाना चाहिये। वहाँ सवको एक जगह एकत्रित होना चाहिये, एकत्रित होकर धर्म रूपी रम्मी का ममन मार्जन (परीक्षण) करना चाहिये । इस प्रकार भी कुछ झगड़ों का शमन हो जाता है।
"आनन्द ! स्मृति-विनय कैसे होता है ? यहाँ आनन्द ! भिक्षु भिक्ष पर पागजिक या-पाराजिक समान दोष का आरोप लगाता है, स्मरण करो आवुम ! तुम पाराजिक या पाराजिक-समान बड़े दोष के अपराधी हुए, कितु वह दूसरा भिक्ष उत्तर में कहता है, 'आवुस ! मुझे याद नहीं कि मैं ऐसी भारी आपत्ति से आपन्न हूँ, दोष से दोषी हूँ। उस भिक्षु को आनन्द ! स्मृति-विनय देना चाहिये । इस स्मृति विनय से भी किन्ही किन्हीं झगड़ों का निबटारा होता है ।