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सके, तत्सम्बन्धी नियमों को 'अनियता धम्मा' कहते हैं। इनका सम्बन्ध दो प्रकार के अपराधों से है (१) यदि कोई भिक्षु किसी एकान्त स्थान पर बैठा हआ स्त्री से बातें कर रहा है और कोई श्रद्धावती उपासिका आकर उसे 'पाराजिक' 'संघादिसेस' या 'पाचित्तिय' (प्रायश्चित्तिक--जिसके लिये प्रायश्चित्त करना पड़े) अपराध का दोषी ठहराती है और वह उसे स्वीकार कर लेता है तो वह उसी अपराध के अनुसार दंड का भागी है (२) यदि वह एकान्त स्थान में न वैठ कर किसी खुली हुई जगह में बैठ कर ही स्त्री से सम्भाषण कर रहा है। किन्तु उसके शब्दों में कुछ अनौचित्य है और कोई श्रद्धावती उपासिका उसी प्रकार आकर उसे 'पाराजिक' 'संघादिमेस' या 'पाचित्तिय' अपराध का दोषी ठहराती है और वह उसे स्वीकार कर लेता है, तो वह उसी अपराध के अनुसार दंड का भागी है।
तीस निस्सग्गिया पाचित्तिया धम्मा
'निस्सग्गिया पाचित्तिया धम्मा' वे अपराध हैं जिनके लिये स्वीकरण के माथ साथ प्रायश्चित करना पड़ता है और जिस वस्तु के सम्बन्ध में अपराध किया जाता वह वस्तु भी भिक्षु से छीन ली जाती है। इस श्रेणी के अपराधों में प्रायः मभी वस्त्र-संबंधी और केवल दो भिक्षा-पात्र सम्बन्धी है। वस्त्र सम्बन्धी तृष्णा भिक्षु को किन किन रूपों में आ सकती है, इसी को देखकर इन नियमों का विधान किया गया है। उदाहरणतः यदि कोई भिक्षु अपने पास अतिरिक्त वस्त्र रखता है, या किसी गृहस्थ से बेठीक समय पर वस्त्र माँगता है, या अपनी इच्छानुसार किसी अच्छे वस्त्र को प्राप्त करने के लिये अपने किसी उपासक गृहस्थ को इशारा देता है, या रेशम या मुलायम ऊन के गद्दों आदि को काम में लेता है, तो वह इस अपराधी के अन्तर्गत अपराधी होता है। इसी प्रकार अतिरिक्त भिक्षा-पात्र रखने पर या बिना आवश्यक कारण उसे किसी दूसरे से बदल लेने पर वह इस अपराध के अन्तर्गत अपराधी होता है। इन वस्त्र और भिक्षा-पात्र सम्बन्धी नियमों का उद्देश्य, जिनके सब के ब्योरेवार विवरण देने की हमें आवश्यकता नहीं, केवल यही है कि भिक्ष इन वस्तुओं के प्रयोग में संयत और सावधान रहें. वे अल्पेच्छ हों और यथा-प्राप्त सामग्री से ही अपना गुजारा कर लें। व्यक्ति के ऊपर संघ की प्रतिष्टा भी इन नियमों के द्वारा की गई है। जो वस्तु संघ को दान दी गई है उसे कोई एक भिक्षु व्यक्तिगत रूप से अपनी बनाकर नहीं रख