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( ३२४ ) मोक्ष पा जाना, हो सकता है । चूंकि प्रत्येक भिक्षु अलग अलग अपने मुख से अपने पाप का स्त्रीकरण कर पाप-विमुक्त होता था, अतः 'प्रातिमोक्ष' के 'प्राति' शब्द में यह 'प्रति' का भाव लेकर हम कह सकते हैं कि 'प्रातिमोक्ष' का अर्थ है प्रत्येक की अलग अलग मुक्ति । चंकि पालि ‘पातिमोक्ख' का संस्कृत प्रतिरूप 'प्रातिमोक्ष' ही सर्वास्तिवादी आदि प्राचीन बौद्ध सम्प्रदायों ने किया है, अतः पालि 'पातिमोक्ख' का भी अर्थ प्रत्येक का अलग अलग पाप-मुक्त हो जाना अशुद्ध नहीं हो सकता। आधुनिक विद्वान् अधिकतर इसी अर्थ को लेते हैं। किन्तु आचार्य बुद्धघोष ने 'प्रति मुख' अर्थात् प्रत्येक भिक्षु के द्वारा अपने अपने मुख से पाप-स्वीकरण, इस अर्थ पर जोर दिया है। यह ‘पातिमोक्ख' में होता ही है। बुद्धघोष की 'पातिमोक्ख' की निरुक्ति और सर्वास्तिवादी आदि सम्प्रदायों में 'प्रातिमोक्ष' के रूप में उसका अर्थ ग्रहण, इन दोनों में कोई असंगति नहीं है। बल्कि वे दोनों ही उसके क्रिया और फल के क्रमशः सूचक हैं, अतः वे एक दूसरे के पूरक भी हैं। भगवान ने प्रातिमोक्ष-सम्बन्धी उपदेश सत्तों में भी अनेक बार दिया है" भिक्षु शोलवान् होता है, प्रातिमोक्ष के संवर (संयम) मे संदृत होता है, आचार-गोचर से सम्पन्न होता है, शिक्षापदों को ग्रहण कर अभ्यास करता है" १ आदि, ।
खन्धक
विनय-पिटक का दुसरा भाग खन्धक भी दो भागों में विभक्त है, महावग्ग और चल्लवग्ग। सत्त-विभंग जब कि अधिकांशतः निषेधात्मक है, महावग्ग उसी का विधानात्मक स्वरूप है। संघ के अन्दर जिस प्रकार का जीवन बिताना चाहिए उसका यहाँ निर्देश किया गया है। महावग्ग में प्रथम दस खधक हैं। सम्बोधिप्राप्ति से लेकर प्रथम संघ की स्थापना तक कायहाँ पूराइतिहास भी दिया गया है। यह भाग 'महावग्ग' का बड़ा महत्वपूर्ण है। पहले खन्धक (विभाग, अध्याय) में भगवान बुद्ध को बुद्धत्व-प्राप्ति एवं वाराणसी में धर्म चक्र प्रवर्तन का वर्णन है।
१. गोपक-मोग्गल्लान सुत्त (मज्झिम. ३३११८); मिलाइये "भिक्षओ!
शील-सम्पन्न होकर विहरो, प्रातिमोक्ष-संवर से संवृत (रक्षित) होकर विहरो, शिक्षापदों को ग्रहण कर उनका अभ्यास करो।" आकखेय्य-सन (मज्झिम. ११११६)