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चौथा अध्याय विनय-पिटक
त्रिपिटक में विनय-पिटक' का स्थान
विनय-पिटक बौद्ध संघ का संविधान है। अतः धार्मिक दृष्टि से उसका बड़ा महत्त्व है। बुद्ध-धर्म का प्रथम तीन शताब्दियों का इतिहास विनय-पिटक संबंधो विवादों और मतभेदों का ही इतिहास है। शास्ता के महापरिनिर्वाण के बाद ही 'कुद्रानुभद्र' विनय-मम्बन्धी नियमों को लेकर भिक्षु-संघ में विवाद उठ खड़ा हुआ था, जिमका प्रथम संघ-भेदक परिणाम वैशाली की संगीति में दृष्टिगोचर हआ और बाद में तृतीय संगीति तक आते आते वह अष्टादश निकायों के रूप में पूर्णतः प्रस्फुटित हो गया। यह बात नहीं है कि इसके अन्य कारण न रहे हों, किन्तु विनय-विपरीत आचरण एक प्रमुख कारण था। यही कारण है कि स्थविरवाद बौद्ध धर्म की परम्परा ने 'विनय-पिटक' को अपनी धर्म-साधना में सदा एक अत्यन्त ऊँचा स्थान दिया है। बुद्ध के जीवन-काल में ही उनके विद्रोही शिष्य देवदत्त ने विनय-सम्बन्धी नियमों में कुछ अधिक कड़ाई की मांग की थी। उसने उस स्वतंत्रता के विरुद्ध ही, जो तथागत ने अपने शिष्यों को दी थी, विद्रोह किया था। इमी प्रकार कौशाम्बिक भिक्षुओं के दुर्व्यवहार के कारण भगवान् को खिन्न हो कर एक बार भिक्षु-संघ को कुछ काल के लिए छोड़ कर एकान्त-वास के लिए जाना पड़ा था। इन सब बातों से स्पष्ट था कि भगवान् ने जिस धम्म का उपदेश दिया था उसका साक्षात्कार बिना जीवन की पवित्रता के असम्भव था। उस पवित्रता के सम्पादन के लिए जिस साधन-मार्ग की आवश्यकता थी उसका वास्त
१. महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनुवादित, महाबोधि सभा, सारनाथ
१९३५, २० द० वदेकर ने विनय-पिटक के 'पातिमोक्ख' अंश का नागरीलिपि में सम्पादन किया है।