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विक उपदेश तो उनके 'धम्म' में ही दे दिया गया था, किन्तु भिक्षु और भिक्षुणी संघों की स्थापना के बाद, उनमें कुछ असंयमी और अ-बैराग्यवान् व्यक्तियों के भी स्वाभाविक रूप से प्रविष्ट हो जाने के कारण, उनकी व्यवस्था को कुछ वाहय नियमों में भी बाँधने की आवश्यकता थी। यही कारण है कि हम विनय-पिटक में नाना प्रकार के नियमों का प्रज्ञापन बुद्ध-मुख से हुआ देखते है, जिनके प्रज्ञापन करने की उनके अपने उस प्राथमिक उपदेश-काल में, जब तपस्सु और भल्लिक जैसे उपासक केवल बुद्ध और धम्म की शरण जाते थे (संघ की स्थापना ही उस समय नही हुई थी, अतः स्वभावत: पारिभाषिक अर्थों में विनय-सम्बन्धी नियमों की भी नहीं) कोई आवश्यकता ही नहीं थी।' बुद्ध-धर्म की साधना का यह वह युग था जब बुद्ध कह सकते थे--
“य मया सावकानं सिक्खापदं पञतं, तं मम सावका जीवितहेतु पि नातिक्कमन्ति (अंगुत्तर-निकाय) अर्थात् “जिन शिक्षापदों (सदाचार-नियमों) का मैने उपदेश किया है, उनको मेरे शिष्य अपने प्राणों के लिये भी कभी नहीं तोड़ते।" उस समय शिक्षा-पद थे. किन्तु वे धर्म में ही अलहित थे। बोधिपक्षीय धर्मों की भावना और तदनकल आचरण स्वयं अपने आप में चित्त और काया की विशुद्धि के लिए एक अद्वितीय मार्ग था। चार आर्य-सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग आदि सभी उम माधना के अंग थे। चार स्मृति-प्रस्थानों के विपय में तो स्वयं भगवान ने कहा है "भिक्षुओ! प्राणियों की विशद्धि के लिए . . . .निर्वाण के साक्षात्कार के लिए, यही अकेला सर्वोत्तम मार्ग है।" कहने का तात्पर्य यही है कि जब भगवान् बुद्ध ने प्रारम्भ से ही सभी पाप-कर्मों को न करने, सभी कुशल कर्मो को करने और चित्त को संयमित कर उसे शुद्ध रखने का आदेश देते हुए अपने धम्म को प्रकाशित किया, तो 'विनय' उसमें स्वयं अपने आप सम्मिलित था। लौकिक मफलता और महत्व-प्राप्ति के लिए भी जब संयम, या जिसे आज अनुगासन कहा जाता है, इतना आवश्यक है, तो ब्रह्मचर्य के उस महत् उद्देश्य के
१. यद्यपि विनय-पिटक के वर्णनानुसार यह काल बहुत कम दिन रहा, किन्तु इसको
सी पवित्रता तो बहुत दिन रही।