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अनेक पक्षि-समूहों से आकीर्ण--वे पर्वत मुझे प्रिय हैं । शीतकाल का पूग अनुभव लेते हुए भी ध्यानी भिक्षुओं को हम 'थेरगाथा' में देखते है :
हेमन्त की शीतल काल गत्रि है !
खाल को भी पार करने वाली, मन को भी विदीर्ण करने वाली, ठंही ह्वा है !
भिक्षु ! न कैसे करेगा ? मंने मुना है मगध निवासी लोग शस्यों की पूर्णता में सम्पन है । उनका जीवन सखी है। मैं भी उनके ममान मुख अनुभव करता है।
गीत की यह रात में इस पुआल-पंज में लेटकर बिनाऊँगा।'
इसी प्रकार एक दूसरे भिक्षु ने चारों ओर मनोरम द्रुम फूले हुए है' (दुमानि फुल्लानि मनोरमानि--गाथा ५२८) आदि रूप मे वसन्त ऋतु का वर्णन कर 'कालो इतो पक्कमनाय वीर' (हे वीर ! यह प्रक्रमण करने का समय है) इस प्रकार ध्यानमयी प्रेरणा दी है।
भगवान् ने मध्य रात्रि में उठ कर बोधिपक्षीय धर्मों की भावना करने का
१. करेरिमालावितता भूमिभागा मनोरमा। कुजराभिरुद्धा ते सेला रमयन्ति
मं॥१०६२ नीलब्भवण्णा रुचिरा वारिसीता सुचिन्धरा ।१०६३ ' वारणाभिरुदा ते सेला रमयन्ति मं॥१०६४ अलं झायितुकामस्स पहितत्तस्स मे सतो।१०६६ . . . . . . . . मिगसंघनिसेविता।
नानादिजगणाकिण्णा ते सेला रमयन्ति मं॥१०६९ २. छविपापक चित्तभद्दक. . . . . . हेमन्तिक सीतकालरत्तियो भिक्खु त्वं सि कथं
करिस्ससि ॥सम्पन्नसस्सा मगधा केवला इति मे सुतं। पलालच्छन्नको सेय्यं
यथझे सखजीविनो॥२०७--२०८ ३. वसन्त ऋतु के सन्दर वर्णन के लिए देखिये थेरीगाथा, गाथाएँ ३७१-३७२
आदि भी।