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( २८४ ) (२०८) और सन्धिभेद जातक (३४९) आदि जातक-कथाएँ पशु-कथाएँ हैं । ये कथाएँ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विशेषतः इन्हीं कथाओं का गमन विदेशों में हुआ है। व्यङ्ग य का पुट भी यहीं अपने काव्यात्मक रूप में दृष्टिगोचर होता है । प्रायः पशुओं की तुलना में मनुष्यों को हीन दिखाया गया है । एक विशेष बात यह है कि व्यङ्गय किसी व्यक्ति पर न कर सम्पूर्ण जाति पर किया गया है । एक बन्दर कुछ दिनों के लिए मनुष्यों के बीच आकर रहा। वाद में अपने साथियों के पास जाता है । साथी पूछने है ___ "आप मनुष्यों के समाज में रहे हैं । उनका बर्ताव जानते हैं। हमें भी कहें । हम उमे सुनना चाहते हैं।"
"मनुष्यों की करनी मुझ से मत पूछो।" "कहें, हम स्नना चाहते है।" बन्दर ने कहना शुरू किया,
"हिरण्य मेरा ! सोना मेरा ! यही रात-दिन वे चिल्लाते है। घर में दो जने रहते हैं। एक को मूछ नहीं होती। उसके लम्बे केश होते हैं, वेणी होती है
और कानों में छेद होते है । उसे बहुत धन से खरीदा जाता है । वह मब जनों को कष्ट देता है।"
बन्दर कह ही रहा था कि उमके साथियों ने कान बन्द कर लिए "मत कहें, मत कहें"।' इस प्रकार के मधुर और अनठे व्यङ्गय के अनेकों चित्र 'जातक' में मिलेंगे । विशेषतः मनुष्य के अहंकार के मिथ्यापन के सम्बन्ध में मर्मस्पर्गी व्यङ्गय महापिंगल जातक (२४०) में, ब्राह्मणों की लोभ-वृत्ति के सम्बन्ध में सिगाल जातक (११३ ) में, एक अति बद्धिमान् तपस्वी के सम्बन्ध में अवारिय जातक (३७६) में हैं। सब्बदाठ नामक शृगाल सम्बन्धी हास्य और विनोद भी बड़ा मधुर है (सब्बदाठ जातक २४१) और इसी प्रकार मक्खी हटाने के प्रयत्न में दामी का मुसल से अपनी माता को मार देना (रोहिणी जातक ३४५) और बन्दरों का पौधों को उखाड़कर पानी देना भी (आरामदूमक
१. गरहित-जातक (२१९) भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद, जातक
(द्वितीय खंड), पृष्ठ ३६२-६३