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है। यदि पालि साहित्य के इतिहास का लेखक इन अनेक ग्रन्थों, महाग्रन्थों, में में उल्लिखित जातक-सामग्री का उल्लेख अपने जातक-परिचय में कराना चाहे तो यह उसकी धृष्टता ही होगी। यह अनेक महाग्रन्थों का विषय है। यदि वह इसके निदर्शन का प्रयत्न करेगा तो महासमुद्र में अपने को गिरा देगा। उसका मूर्धापात हो जायगा।
यही बात वास्तव में जातक के भारतीय साहित्य और विदेशी साहित्य पर प्रभाव की है। पहले बौद्ध साहित्य और कला में उसके स्थान और महत्त्व को लें। जैमा पहले कहा जा चुका है, बौद्ध धर्म के सभी सम्प्रदायों में 'जातक' का महत्त्व सुप्रतिष्ठित है। महायान और हीनयान को वह एक प्रकार से जोड़ने वाली कड़ी है, क्योंकि महायान का वोधिसत्व-आदर्श यहाँ अपने वीज-रूप में विद्यमान है । हम पहले देख चुके हैं कि दूसरी-तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व के माँची और भरहुत के स्तूपों में जातक के अनेक दृश्य अंकित है। 'मिलिन्दपहो' में अनेक जातक-कथाओं को उद्धृत किया गया है। पाँचवीं शताब्दी में लंका में उसके ५०० दृश्य अंकित किये जा चुके थे। अजन्ता की चित्रकारी में भी महिम जातक (२७८) अंकित है ही। बोध-गया में भी उसके अनेक चित्र अंकित है। इतना ही नहीं जावा के बोरोबदूर स्तूप (९वीं शताब्दी ईसवी) में, वन्मा के पेगन स्थित पेगोडाओं में (१३वीं शताब्दी ईसवी) और सिआम के मखोदय नामक प्राचीन नगर (१४वीं शताब्दी) में जातक के अनेक दृश्य चित्रित मिले हैं। अतः जातक का महत्त्व भारत में ही नहीं, बृहत्तर भारत में भी, स्थविरवाद बौद्ध धर्म में ही नहीं, वौद्ध धर्म के अन्य अनेक के रूपों में भी, स्थापित है।
अब भारतीय साहित्य में जातकों के महत्त्व और स्थान को लें। यदि कालक्रम की दृष्टि से देखें तो वैदिक साहित्य की शुनः शेप की कथा, यम-यमी संवाद, पुरुरवा-उर्वशी संवाद आदि कथानक ही बुद्ध-पूर्व काल के हो सकते हैं। छान्दोग्य और बृहदारण्यक आदि कुछ उपनिषदों की आख्यायिकाएँ भी बुद्ध-पूर्व काल की मानी जा सकती हैं, और इसी प्रकार ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण के कुछ
सोसायटी, १९०१, रतिलाल मेहता : Pre-Buddhist India; डा० रायस डेविड्स : बुद्धिस्ट इंडिया, अध्याय ६ (Economic Conditions) पृष्ठ ८७-१०७