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( २६२ ) को सुनकर अमृत की प्राप्ति के लिए जागरूक होकर ध्यान करूँगा ! क्या कभी मेरे ऐसे दिन आयेंगे?'
फिर अपने मन को सम्बोधन कर भिक्षु कहता है :
हे चित्त ! उस गिरिव्रज में अनेक विचित्र और रंग बिरंगे पंखधारी पक्षी हैं । सुन्दर नीली ग्रीवा वाले मोर हैं। (इन्द्र के घोष को मनकर उमका अभिनन्दन करते हए ) वे नित्य ही मंजल ध्वनि करते है । हे चिन ! जब तु ध्यानी होकर वहाँ विचरेगा तो ये तुझे कितने प्रीतिकर होंगे ! २ ___नये वर्षाजल मे मिक्त कानन में, किसी गुहा-गृह में ध्यान लगाते हुए.... मयूर और क्रौंच के रव से पूरित उस वन में, हाथी और व्याघ्रों के सामने बसते हुए, हे चित्त ! तुझ ध्यानी को ये कितने प्रीतिकर होंगे ॥५ एक दूसरे ध्यानी भिक्षु को भी पर्वत कितने प्रिय है। करेरि-वृक्षों की पंक्तियों से आपूर्ण, मनोरम भूमिभाग वाले
कुंजरों से अभिरुद्ध, रमणीय--वे पर्वत मुझे प्रिय है । नीले आकाश के समान वर्ण वाले, सन्दर, शीतल जल मे परिपूर्ण, पवित्रताकारी
हाथियों के शब्दों से परिपूर्ण-वे पर्वत मझे प्रिय है ! मुझ ध्यानेच्छु, आत्ममंयमी, स्मृतिमान् भिक्षु के लिये पर्याप्त, मृग ममूहों मे मेवित ।
१. कदा मयूरस्स सिखण्डिनो वने दिजस्स सुत्वा गिरिगन्भरे रुतं । पच्चुटहित्वा
अमतस्स पट्टिया संचिन्तये तं नु कदा भविस्सति ॥११०३ २ सुनीलगीवा सुसिखा सुपेखुणा सुचित्तपत्तच्छदना विहंगमा। सुमञ्जुघोसत्थ.
निताभिगज्जिनो ते तं रमिस्सन्ति वनम्हि झायिनं ॥११३६ ३. नवाम्बुना पावुससित्तकानने तहि गुहागेहगतो रमिस्ससि। ११३५ ४. मयूरकोञ्चाभिरुदम्हि कानने दीपीहि व्यग्घेहि पुरक्खतो वसं। १११३ ५. ते तं रमिस्सन्ति वनम्हि झायिनं ।११३६ आदि