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( २८० ) गाथाओं को त्रिपिटक का मूल अंश नहीं माना जा सकता। उनमें भी पूर्वापर भेद है। स्वयं 'जातक' के वर्गीकरण से ही यह स्पष्ट है। जैसा ऊपर दिखाया जा चुका है, चौदहवें निपात में प्रत्येक जातक-कथा की गाथाओं की संख्या नियमानुसार १४ न होकर कहीं-कहीं बहुत अधिक है। इसी प्रकार मत्तरवें निपात में उसकी दो जातक-कथाओं की गाथाओं की संख्या भत्तर-सनर न हो कर क्रमशः ९२
और ९३ हैं। इस सब मे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जातक की गाथाओं अथवा 'गाथा-जातक' की मूल संख्या निपात की संख्या के अनुकूल ही रही होगी, और बाद में उसका संवर्द्धन किया गया है। अतः कुछ गाथाएँ अधिक प्राचीन है और कुछ अपेक्षाकृत कम प्राचीन। इसी प्रकार गद्य-भाग भी कुछ अत्यन्त प्राचीनता के लक्षणं लिए हुए है और कुछ अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। किमी-किसी जातक में गद्य और गाथा-भाग में माम्य भी नहीं दिखाई पड़ता और कहीं-कहीं शैली में भी बड़ी विभिन्नता है। इस सब से जातक के संकलनात्मक रूप और उसके भाषा-रूप की विविधता पर प्रकाग पड़ता है, जिसमें कई रचयिताओं या संकलनकर्ताओं और कई शताब्दियों का योग रहा है।
जातक की गाथाओं की प्राचीनता तो निर्विवाद है ही, उमका अधिकांश गद्य-भाग भी अत्यन्त प्राचीन है। भगत और सांची के स्तुपों की पाषाण-वेप्टनियों पर जो चित्र अंकित हैं, वे 'जातक' के गद्य-भाग से ही सम्बन्धित है । अतः 'जातक' का अधिकांश गद्य-भाग जो प्राचीन है, तृतीय-द्वितीय शताब्दी ईसवी पूर्व में इतना लोक प्रिय तो होना ही चाहिए कि उमे शिल्प-कला का आधार बनाया जा सके। अतः सामान्यतः हम 'जातक' को बद्धकालीन भारतीय समाज और संस्कृति का प्रतीक मान सकते हैं। हाँ, उसमें कुछ लक्षण और अवस्थाओं के चित्रण प्राग्बौद्धकालीन भारत के भी हैं। जहाँ तक गाथाओं की व्याख्या और उनके शब्दार्थ का सम्बन्ध है, वह सम्भवतः जातक का सब से अधिक अर्वाचीन अंश है । इस अंश के लेखक आचार्य बुद्धघोप माने जाते हैं। 'गन्धवंम' के अनुमार आचार्य बुद्धघोष ने
१. विन्टरनित्जः इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११९ २. देखिये विन्टरनित्ज : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११९, पद-संकेत
२; पृष्ठ १२२, पद-संकेत २