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न किया है। पालि सुत्नों में हम अनेक बार पढ़ते हैं “सम्बोधि प्राप्त होने से पहले, बुद्ध न होने के समय, जब मै बोधिसत्व ही था" २ आदि। अतः बोधिसत्व से स्पष्ट तात्पर्य ज्ञान, सत्य, दया आदि का अभ्यास करने वाले उस साधक से है, जिसका आगे चलकर बुद्ध होना निश्चित है। भगवान् वद्ध भी न केवल अपने अन्तिम जन्म में बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था से पूर्व बोधिसत्व रहे थे, बल्कि अपने अनेक पूर्व जन्मों में भी बोधिसत्व की चर्या का उन्होंने पालन किया था। 'जानक' की अथाएँ भगवान् बुद्ध के इन विभिन्न पूर्व-जन्मों से, जब कि वे 'बोधिसत्व' रह थे, सम्बन्धित है। किसी-किसी कहानी में वे प्रधान पात्र के रूप में चित्रित है। कहानी के वे स्वयं नायक है। कहीं-कहीं उनका स्थान एक साधारण पात्र के रूप में गौण है और कहीं कही वे एक दर्शक के रूप में भी चित्रित किये गए हैं। प्रायः प्रत्येक कहानी का आरम्भ इस प्रकार होता है "एक समय (राजा ब्रह्मदत्त के वाराणसी में राज्य करते समय) बोधिसत्व कुरङ्ग मग की योनि में उत्पन्न हुए"3 अथवा ". . . . . .सिन्धु पार के घोड़ों के कुल में उत्पन्न हुए"४ अथवा ".... बोधिसत्व उसके (ब्रह्मदत्त के) अमात्य थे।"" अथवा "...... बोधिसत्व गोह की योनि में उत्पन्न हए” ६ आदि, आदि।
जातकों की निश्चित संख्या कितनी है, इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है। लंका, बरमा, और सिआम में प्रचलित परम्परा के अनुसार जातक ५५० हैं। यह संख्या मोटे तौर पर ही निश्चित की गई जान पड़ती है। जातक के वर्तमान रूप में ५४७ या ५४८ जातक-कहानियाँ पाई जाती है। पर यह संख्या भी केवल ऊपरी है। कई कहानियाँ अल्प रूपान्तर के साथ दो जगह भी पाई जाती है या एक दूसरे में समाविष्ट भी कर दी गई है, और इसी प्रकार कई जातक
१. विन्टरनित्ज-इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११३, पद-संकेत २ २. भय-भेरव सुत्तन्त (मज्झिम १११।४) ३. कुरुंगमिग जातक (२१) ४. भोजाजानीय जातक (२३) ५. अभिण्ह जातक (२७) ६. गोध जातक (३२५)