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रूप दे दिया गया है। तित्तिर जातक (३४) और दीधित कोसल जातक (३७१) का निर्माण इसी प्रकार विनय-पिटक के क्रमश: चल्लवग्ग और महावग्ग से किया गया है। मणिकंठ जातक (२५३) भी विनय-पिटक पर ही आधारित है। इसी प्रकार दीघ-निकाय के कुटदन्त-सुत्तन्त (११५) और महासुदस्सन मत्तन्त (२४) तथा मज्झिम-निकाय के मखादेव-मुत्तन्त (२।४।३) भी पूरे अर्थों में जातक है । कम से कम १३ जातकों की खोज विद्वानों ने सत्त-पिटक और विनय-पिटक में की है।' यद्यपि राज-कथा, चोर-कथा, एवं इसी प्रकार की भय, युद्ध, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, स्त्री, पनघट, भूत-प्रेत आदि सम्बन्धी कथाओं को 'तिरश्चीन' (व्यर्थ की, अधम) कथाएं कह कर भिक्षु-संघ में हेयता की दृष्टि से देखा जाता था, फिर भी उपदेश के लिए कथाओं का उपयोग भिक्षु लोग कुछन-कुछ मात्रा में करते ही थे । स्वयं भगवान् ने भी उपमाओं के द्वारा धर्म का उपदेश दिया है । इसी प्रवृत्ति के आधार पर जातक-कथाओं का विकास हुआ है। जन-समाज में प्रचलित कथाओं को भी कहीं-कहीं ले लिया गया है, किन्तु उन्हें एक नया नैतिक रूप दे दिया गया है जो बौद्ध धर्म की एक विशेपता है । अतः सभी जातक कथाओं पर वौद्ध धर्म की पूरी छाप है । पूर्व परम्परा से चली आती हुई जनश्रुतियों का आधार उनमें हो सकता है । पर उसका सम्पूर्ण ढाँचा वौद्ध धर्म के नैतिक आदर्श के अनुकूल है । हम पहले देख चुके है कि वुद्ध-वचनों का नौ अंगों में विभाजन, जिनमें जातक की संख्या सातवीं है, अत्यन्त प्राचीन है । अतः जातक कथाएं मांग में पालि साहित्य के महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक अंग है। उनकी संख्या के विषय में अनिश्चितता विशेषतः उनके समय-समय पर सत्त-पिटक और विनयपिटक तथा अन्य स्रोतों से संकलन के कारण और स्वयं पालि त्रिपिटक के नाना वर्गीकरणों और उनके परम्पर संमिश्रण के कारण उत्पन्न हुई है। चुल्ल-निदेस में हमें केवल ५०० जातकों का (पञ्च जातकसतानि) का उल्लेख मिलता
१. विन्टरनित्ज--इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ११५, पद-संकेत २ २. ब्रह्मजाल-सुत्त (दीघ १३१), सामञफल-सुत्त (दोघ ११२), विनय-पिटक--
महावग्ग, आदि, आदि। ३. देखिये पीछे दूसरे अध्याय मे पालि साहित्य के वर्गीकरण का विवेचन ।