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भी है और जीवन का सच्चा दर्शन भी। निर्वाण की परम शान्ति का वर्णन करते हुए भिक्षुणियाँ कभी थकती नही । जीवन की विषमताओं पर वे अपनी विजय का ही गीत गाती है । "अहो ! मैं कितनी मुखी हूँ !" यही उनके उद्गारों की प्रतिनिधि ध्वनि है। बार बार उनका यही प्रसन्न उद्गार होता है “मीनिभूतम्हि निब्बता" अर्थात् निर्वाण को प्राप्त कर मै परम शान्त हो गई, निर्वाण की परम-शान्ति का मैंने साक्षात्कार कर लिया। भिक्षुणियों की गाथाओं में निरा. शावाद का निराकरण है, साधनालब्ध इन्द्रियातीत मुख का साक्ष्य है और नैतिक ध्येयवाद की प्रतिष्ठा है। बुद्ध-शासन की भावना से ओतप्रोत है, यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं। 'थेरीगाथा' की भावना-शैली से परिचित होने के लिये महाप्रजापती गोतमी की भगवान बुद्ध के प्रति यह श्रद्धाञ्जलि देखिये
हे बुद्ध ! हे वीर ! हे सर्वोत्तम प्राणी ! तुम्हें नमस्कार ! जिसने मुझे और अन्य बहुत से प्राणियों को दुःख मे उबाग। मेरे सब दुःख दूर हो गये, उनके मूल कारण वासना का भी उच्छेदन कर दिया गया ! आज मैंने दुःवनिरोध-गामी आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग में विचरण किया । माता, पुत्र, पिता, भाई, स्वामिनी, मैं पूर्व जन्मों में अनेक बार बनती रही! यथार्थ ज्ञान न होने के कारण मैं लगातार मंमार में धूमती रही ! अब मैने इस जन्म में उन भगवान् (बद्ध) के दर्शन किये, मुझे अनुभव हुआ-~~यह मेरा अन्तिम शरीर है ! मेरा आवागमन क्षीण हो गया, अब मेरा फिर जन्म होना नहीं है।
बहतों के हित के लिये ही महामाया ने गोतम को जाना! जिसने व्याधि और मरण मे आकुल जन-ममूह के दुःख-पुंज को काट दिया !
एक अन्य भिक्षुणी (चन्दा) अपने पूर्व के दुःग्व-मय जीवन का प्रत्यवेक्षण करती हुई कहती है--
विधवा और निःसन्तान---मैं पहले बड़ी मुभीवन में पड़ी थी, मित्र-माथी मेरे कोई नहीं थे, जानि-बन्ध मेरे कोई नहीं थे ! भोजन और वस्त्र भी मै नहीं पाती थी !