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( २६७ ) किसी समय भौरे के समान कृष्ण वर्ण और घना मेरा केशपाय और सघन उपवन सी मेरी यह वेणी, पुष्पाभरणों और स्वर्णालंकारों से सुरभित और सुशोभित रहा करती थी, वही आज जरावस्था में श्वेत, गन्धपूर्ण, बिखरी हुई, जीर्ण सन के वस्त्रों जैमी झर रही है। मत्यवादी (बुद्ध) के वचन मिथ्या नहीं होते !
गाढ़ नील मणियों मे समज्ज्वल, ज्योनिपूर्ण नेत्र आज गोभा विहीन है !
नवयौवन के ममय मुदीर्घ नामिका, कर्णद्वय और कदली-मकुल के गदृश पूर्व की दन्तपंक्ति क्रमशः ढुलकनी और भग्न होती जा रही है।
वनवामिनी कोकिला के समान मेरा मधर म्वर और चिकने शंख की भाँति सुघड़ ग्रीवा आज कम्पित हो रही है।
स्वर्ण-मंडित उँगलियाँ आज अगक्त एवं मेरे उन्नत स्तन आज ढलकते शक चर्म मात्र हैं।
स्वर्ण नुपुरों से सुशोभित पैरों और कटि-प्रदेश की गति आज धीविहीन है। आदि
प्रायः सभी भिक्षुणियों के उद्गारों में काव्यगत निशेषताएँ भरी पड़ी हैं, जिनका विवेचन यहाँ नहीं किया जा सकता। निश्चय ही भिक्षणियों के उद्गारों की मार्मिकता और उनकी शान्त, गम्भीर ध्वनि भारतीय माहित्य में अद्वितीय है और पालि-काव्य की तो वह अमूल्य सम्पनि ही है। जिन ७३ भिक्षुणियों के उद्गार 'थेरीगाथा' में सन्निह्नि हैं, वे मभी बद्धकालीन हैं। बल्कि यों कहना चाहिये, वे सभी भगवान् बुद्ध की शिष्याएँ है । नारी जाति के प्रति भगवान् की कितनी अनुकम्पा थी, यह इसी मे समझा जा सकता है कि उनमें से अनेक अपने को 'बद्ध की हृदय से उत्पन्न कन्या' (ओरमा धीता बुद्धस्म) कह कर अभिनन्दित करती थीं। वे मानती थी कि 'जब चिन मुममाहित है, तो स्त्री-भाव इममें हमारा क्या करेगा (इथिभावो नो
१. देखिये गाथाएँ ४६ एवं ३३६