________________
( . २६६
)
लकड़ी और भिक्षापात्र लेकर घर से घर भिक्षा माँगती फिरती थी, गर्मी और सर्दी मे व्याकुल हुई, मै सात वर्ष तक इसी प्रकार घूमती रही, एक दिन एक भिक्षुणी के दर्शन मुझे हुए, उसने आदरपूर्वक भोजन और जल देकर मुझे अनुगृहीत किया, फिर मैंने उसके पास जाकर प्रार्थना की--- मैं प्रव्रज्या लूंगी। उस दयामयी पटाचाग ने मुझे अनुकम्पापूर्वक प्रव्रज्या दी। फिर मुझे धर्मोपदेश देकर उसने मुझे परमार्थ में लगाया। उसके उपदेश को सुनने के बाद मैंने उसके अनुगामन को पूरा किया। अहो ! अमोघ था देवी का उपदेश !
मैं आज तीनों विद्याओं को जानने वाली हूँ, सम्पूर्ण चित्त-मलों से रहित हूँ! पटाचारा भिक्षुणी की शिष्या तीम भिणियाँ किम प्रकार उसके प्रति अपनी कृतजता का भाव प्रदर्शित करती है, यह उनके उद्गारों में देखिये---
"लोग मुमलों से अन्न कूट कूट कर वित्तार्जन करते और अपने स्त्री-पुत्रादि का पालन करते हैं।'
तो फिर तुम भी बुद्ध-शामन को पूरा क्यों नहीं करतीं, जिमे कर के पछताना नहीं होता ! अभी गीव्र पैर धोकर बैठ जाओ, चिन की एकाग्रता से युक्त होकर बुद्ध-गामन को पूरा करो।"
पटाचाग के शामन के इन इन शब्दों को मनकर हम सब पैर धोकर एकान्त में ध्यान के लिये बैठ गई।
चित्त की समाधि मे युक्त होकर हमने बुद्ध-शासन को पूरा किया ? गत्रि के प्रथम याम में हमने पूर्व-जन्मों का स्मरण किया !
गत्रि के मध्यम भाग में हम ने दिव्य चक्षओं को विशोधित किया ! रात्रि के अन्तिम भाग में अन्धकार-पंज को विनष्ट कर दिया ।
भिक्षणी अम्बपाली ने अपनी वृद्धावस्था में अपने शरीर का प्रत्यवेक्षण कर जो उद्गार किये है, वे नो पालि-काव्य के मर्वोत्तम उदाहरण ही है । अम्बपाली अपने जीर्ण शरीर को देग्य कर कहती है--