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( २४५ ) (विमानों) का वर्णन है, जिन्हें मात वर्गों में विभक्त किया गया है। प्रथम वर्ग का नाम 'पीठ वग्ग' है। इसमें १७ देव-निवासों का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार शेष ६ वर्गों में जिनके नाम क्रमशः 'चित्तलता वग्ग', 'पारिच्छत्तक वग्ग', 'मज्जेठ्ठ वग्ग', 'महारथ वग्ग', 'पायामि वग्ग' और 'सुनिक्खित्त वग्ग' हैं, क्रमशः ११, १०, १२, १४, १० और ११ देव-निवामों का वर्णन किया गया है। केवल नाम और थोड़े से आमोद-प्रमोदों को छोड़ कर प्रायः प्रत्येक देव-आवास के वर्णन की गैली और मल भावना एक ही है। कोई देवता किसी आवास-विशेष में आमोद-प्रमोद करता हआ दिखाई पड़ता है। उसे देख कर कोई भिक्षु (मोग्गल्लान) उममे पूछता है "हे देवते! तू सुन्दर वर्ण से युक्त है। अपने शुभ्र वर्ण मे तू शुक्र-नाग के समान मारी दिशाओं को आलोकित कर रहा है। मनुष्यों को प्रिय लगने वाले मारे भोग तुझे प्राप्त है । हे महानुभाव देवते ! मैं तुझसे पूछता हूं--मनुष्य होते हुए तूने क्या पुण्य किया था जिसके फलस्वरूप तुझे ये सब भोग मिले----"पृच्छामि तं देवि महान भावे मनुस्सभूता किमकासि पुजं. .... .यस्म कम्मस्मिदं फलं।" देवता प्रसन्न हो कर अपने मनुष्य रूप में किए हुए पुण्यादि का वर्णन करता है--“महानुभाव भिक्षु! सुन, मै तुझे अपने मनुष्य-रूप में किए हुए पुण्य को बतलाता है। प्राण-हिंसा से विरत, मृषावाद मे विरत, संयत, मदा मील से संवत हो कर मै चक्षप्मान, यशस्वी, गोतम का उपासक था. . . . . . .इसी कारण मेग यह शुभ्र वर्ण है। इसी कारण मैं दिशाओं को आलोकित कर रहा हूँ।” सब वर्णनों की प्रायः यही बानगी है। बौद्ध धर्म में जन-साधारण के लिए जिस नीति-विधान का आदर्श रक्खा गया है उसी का दिग्दर्शन ये करते है। अधिक काव्यमय नवीनता इनमें न होते हुए भी वे केवल उन नैतिक गुणों को जिन्हें बौद्ध धर्म में सद्गृहस्थों के लिए साधारणतः आदरणीय माना गया है, बार बार हमारी स्मृति में अङ्कित करने का प्रयत्न करते हैं। आज इसमे अधिक विमानवत्थु के वर्णनों का महत्व हमारे लिए नहीं माना जा सकता। उनकी पौराणिक पृष्ठभूमि तो निश्चय ही बौद्ध धर्म के उत्तरकालीन विकास की सूचक है, अतः उसे बुद्ध-शासन का उतना आवश्यक अंग मानने की गलती नहीं करनी चाहिए। काव्यात्मक गुण भी उनके अन्दर अधिक नहीं है। 'पतवत्थ' में ५० प्रेतों की कहानियाँ है, जिन्हें ४ भागों में विभक्त किया गया है. यथा (१) पेतवत्थु,