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( २५५ ) भिक्षुओं ने अपनी साधना में प्रकृति का कितना सहयोग लिया था, इसका भी पूरा दर्शन हमें 'थेरगाथा' में मिलता है। 'थेरगाथा' में इस प्रकार वन्य और पार्वत्य दृश्यों के तथा वर्षा और गरद् आदि ऋतुओं के जितने सन्दर, संश्लिष्ट चित्र प्रसंगवश आ गये है, वे उसकी एक विभूति वन गये है । 'थेरगाथा' के प्रकृतिवर्णन की तुलना भारतीय साहित्य में केवल वाल्मीकि के इस विषय-सम्बन्धी वर्णनों से की जा सकती है। उसकी उदात्तता, सरलता और सूक्ष्म निरीक्षण राब अद्वितीय है। विन्टरनित्ज़ ने 'थेरगाथा' के प्रकृति-वर्णनों को भारतीय गीति-काव्य के सच्चे रत्न' कहा है। प्रस्तुत लेखक ने ‘पालि साहित्य में प्रकृति-वर्णन' शीर्षक लेख में पालि साहित्य, विशेषत: 'थेरगाथा', में प्राप्त प्रकृति-वर्णन का विस्तृत विवेचन करते हुए भारतीय काव्य-साहित्य में उसके स्थान को निर्धारित किया है। अतः यहाँ केवल संक्षेप से ही कुछ कहना उपयुवत होगा।
भिक्षुओं का जीवन प्रकृति से गहरे रूप से सम्बद्ध था। गिरि-गुहा, नदीतट, वन-प्रस्थ, पुआल-पुज अथवा किसी छाई हुई या बिना छाई हुई ही कुटिया में ध्यान करते हए भिक्षुओं को वर्षा, शीत आदि ऋतुओ के परिवर्तन का
और पृथ्वी और आकाश के अनेक रंगों और रूपों के परिवर्तन का साक्षात् अनुभव होता था। प्रकृति के अनेक रूपों की प्रतिक्रिया उनके चिन पर कैसी होती है, इसके अनेक चित्र वे 'थेरगाथा' में हमारे लिए छोड़ गये हैं। उनमें से कुछ का अवलोकन करना यहाँ आवश्यक होगा। ___ मूसलाधार वर्षा हो रही है। ध्यानस्थ भिक्ष अपनी कुटिया में बैठा है। हाँ, उसकी कुटिया छाई हुई है। भिक्षु उद्गार करता है :--
१. "The Real Gems of Indian Lyric Poctry" इन्डियन लिटरेचर,
जिल्द दूसरी, पृष्ठ १०६ २. धर्मदूत, अप्रैल-मई १९५१ ३. वर्षा होने वाली है। भगवान् मही (गंडक) नदी के तट पर खुली कुटिया
(विवटा कुटि) में बैठे है । देखिये सुत्त-निपात, गाथा १९ (धनिय-सुत्त)