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जन्मों में भी तो मैंने तुझे कभी कुपित नहीं किया । तू मेरे ही अन्दर से उत्पन्न हैं, इसलिए कृतज्ञतावण हे चित्त ! मैंने तेरे लिए चिरकाल तक दुःख में संसरण किया है ! हे चित्त ! तू ही ब्राह्मण बनाता है और तू ही क्षत्रिय राजपि । हे चित्त ! तेरे ही कारण वैश्य और शूद्र बनते हैं और देवत्व भी पाते हैं तेरे ही कारण ! हे चित्त ! तेरे ही कारण असुर बनते हैं नरक-योनियाँ भी तेरे ही कारण है । हे चित्त ! पशु-पक्षी की योनियाँ और पितरों की योनियों में भी तू ही डालता है । धिक् ! धिक् ! रे चित्त ! अब तू आगे का क्या करना चाहता है । अब तू मुझे अपना वगवतीं बना न सकेगा ।" 3 यही भिक्षु आगे कामना करता है
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कदा नु हं दुब्बचनेन वृत्तो ततो निमित्तं विमनो न हेस्सं । अथो पट्ठो पि ततो निमित्तं तुट्टो न हेस्मं तदिदं कदा ॥ ४
अर्थात्--कब मैं अपने लिए प्रयुक्त दुर्वचनो को सुनकर उनके कारण दुःखी और उदासीन नहीं हूँगा, और इसी प्रकार अपनी प्रशंसा किये जाने पर उसके कारण प्रसन्न भी नहीं हूँगा -- क्या कभी मेरे ऐसे दिन आयेंगे ? आदि आदि । अपने पुत्र भिक्षु को बुद्ध के साथ देखकर एक पिता उसका अभिनन्दन करता है
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१. सम्बत्थ ते चित्त वचो कतं मया बहूसु जातिसु न मे सि कोपितो । अज्झत्तसम्भव तताय ते दुक्खे चिरं संसरितं तथा कते ॥ ११२६
२. तवेव हेतू असुरा भवामसे, त्वं मूलकं नेरयिका भवामसे । अथो तिरच्छान गतापि एकदा पेतत्तनं वापि तवेव वाहसा ॥ ११२८
त्ववनो चित्त करोसि ब्राह्मणो त्वं खत्तिया वापि राजदिसी करोसि |
मिलाइये.
वेस्सा च सुद्दा च भवाम एकदा, देवत्तनंवापि तवेव वाहसा ॥ ११२७ ३. धी धी परं किं मम चित्त काहसि न ते अलं चित्त वसानुवत्तको । ११३४; . नाहं अलं तुय्ह वसे निवत्तितुं । ११३२ ४. गाथा ११००; मिलाइये तुलसीदास “कबहुँक हौ यहि रहनि रहौंगो परुष बचन अति दुसह स्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो । बिगतमान, सम सीतल मन. " विनय पत्रिका |
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